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________________ २. अप्पारण वोसिरामि ( आवश्यक सूत्र ) इसमें पूरे पद का अर्थ होगा- 'मैं शरीर का करता हूं।' ३. ० ततोऽहं नाहो जाओ, अप्पणो य परस्स य ।। [ उत्त० २०1३५ ] • विणए ठवेज्ज अप्पारण [ उत्त० १६ ] यहां आत्मा का अर्थ स्वयं अपने को है । इसी प्रकार आगमों में अनेक स्थलों पर भिन्न-भिन्न अर्थ में 'अप्पा' शब्द का प्रयोग हुआ है । सर्वत्र उससे आत्मवाद का ग्रहण नहीं हो सकता । अप्पा ( आत्मा ) का अर्थ है -- शरीर । व्युत्सर्गं करता हूं अर्थात् कायोत्सर्ग भदन्तजी की यह मान्यता कि आत्मवाद ब्राह्मणी परम्परा का प्रभाव है-यह उचित नहीं है । क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्र के चौदहवें अध्ययन में भृगु पुरोहित और उसके पुत्रों का संवाद हैं । भृगु पुरोहित नास्तिक मत की बात कहता हुआ आत्मवाद का खण्डन करता है । तब उसके पुत्र आत्मवाद का मण्डन करते हुए कहते हैं— 'आत्मा अमृत है इसलिए यह इन्द्रियों द्वारा गम्य नहीं है । यह अमूर्त है इस लिए नित्य है। आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बन्धन के हेतु हैं और बन्धन ही 'संसार का हेतु हैं ।' (उत्त० १४ / १९ ) पिता ब्राह्मण संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है और पुत्र श्रमण संस्कृति आधार पर चर्चा करते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में आत्मवाद का स्वर स्थान-स्थान पर गुंजित होता है । अतः यह आरोपित नहीं, स्वतः प्राप्त है । 'धम्मं च पेसलं नच्चा, तत्थ ठवेज्ज भिक्खु अप्पाणं' ( उत्त० ८ / १९ ) इसका अर्थ है - भिक्षु धर्म को अति मनोज्ञ जानकर उसमें अपनी आत्मा को स्थापित करे। यहां 'अपनी आत्मा' का तात्पर्य है 'अपने आपको' । यह नैरात्मवाद पर आत्मा का - निष्प्रयोजन आरोप नहीं है - जैसा कि भदन्तजी कहते हैं। यहां आत्मवाद की बात ही नहीं है। इसी प्रकार 'अप्पाचेव दमेयव्वो' (उत्त० १ / १५ ) यह गाथा भी आत्मवाद की निरूपक गाथा नहीं है । भदन्तजी द्वारा जो अर्थ किया गया है, वह सुन्दर है, स्वतः प्राप्त है । भदन्तजी ने अपने लेख में लिखा है – 'उत्तराध्ययन सूत्र में भी कदाचित् भगवान् महावीर को कहीं भी 'सर्वज्ञ' नहीं कहा गया है ।' ( पृ० ३) यह कथन यथार्थ नहीं है । उत्तराध्ययन सूत्र के तेवीसवें अध्ययन में ७८वीं गाथा में गणधर गौतम केशीकुमार श्रमण से कहते हैं- उग्गओ खीणसंसारो, सव्वन्नू जिभक्खरो ।' 'जिसका संसार क्षीण हो चुका है और जो सर्वज्ञ है, वह अर्हत् रूपी सूर्य उग गया है।' यहां भगवान् महावीर को 'सर्वज्ञ' कहा गया है। इसी प्रकार भदन्तजी ने जो गाथा उद्धृत की है, वह उत्तराध्ययन के छठे अध्ययन की सतरहवीं गाथा है । उसमें भगवान् महावीर के विशेषण के रूप में जो तीन शब्द हैं- अणुत्तरनारणी, अणुत्तर तुलसी प्रज्ञा-३ ८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524503
Book TitleTulsi Prajna 1975 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Gelada
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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