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दंसी और अणुत्तरनाणदंसणधरे-ये तीनों शब्द सर्वज्ञता के द्योतक हैं। अनुत्तरज्ञानीकेवलज्ञानी, अणुत्तरदंसी - केवल दर्शनी और अणुत्तरनाणदंसणधरे- केवल ज्ञान
और दर्शन के धारक अर्थात् सर्वज्ञ । ये शब्द सर्वज्ञ के अर्थ में जैन आगमों में बहु व्यवहृत हैं।
ताई
जैन आगमों में 'ताई' शब्द अनेक बार व्यवहृत हुआ है। उत्तराध्ययन सूत्र में पांच बार (८/४; ११/३१; २१/२२; २३/१० ) और दशवकालिक में सात बार (३/१; १५; ६/२०, ३६ ६६, ६८, ८/६२) सूत्रकृतांग में भी यह अनेक बार आया है (१/२/२/१७, २४; १/१४/२६, आदि-आदि)। टीकाकारों ने इसके संस्कृत रूप दो किए हैं- तायी और वायी। 'तायी' के दो अर्थ प्राप्त हैं।
१. सुदृष्ट मार्ग की देशना के द्वारा शिष्यों का संरक्षण करने वाला। २. मोक्ष के प्रति गमनशील ।४
इसी प्रकार त्रायी के अनेक अर्थ हैं । ५ इन सभी अर्थों में 'रक्षक' का अर्थ ही गभित है। यद्यपि हमने सर्वत्र 'आत्म-रक्षक' अर्थ ही स्वीकार किया है, फिर भी उत्तराध्ययन सूत्र के ८/४ में प्रयुक्त- 'पासमारणो न लिप्पई ताई' के प्रसंग में 'ताई' शब्द पर टिप्पण लिखते हुए 'तादि' के अभिप्राय को संगत माना है। इस विषय में भदन्तजी का सुझाव सुन्दर है ।
गन्थं
___ 'सव्वं गंथं कलहं च' (उत्त० ८/४) में ग्रन्थ का अर्थ परिग्रह किया हैऐसा भदन्त जी को किसी अनुवाद संस्करण में पढ़ने को मिला है। किन्तु यह पता नहीं कि वह संस्करण कौन-सा है। हमारे द्वारा अनूदित सस्करण में हमने 'गंथं' का अर्थ 'ग्रन्थियों' किया है, जो कि प्रकरण-संगत है। उत्तराध्ययन ८/१२ की गाथा इस प्रकार है
'पन्तारिण चेव से वेज्जा, सीयपिडं पुराणकुम्मासं ।
अदु वुक्कसं पुलागं वा, जवणट्ठाए निसेवए मंथु ।।
इसका अर्थ है--भिक्षु जीवन यापन के लिए प्रान्त ( नीरस ) अन्नपान, शीतपिंड, पुराने उड़द, सारहीन या रूखा भोजन या मथु (बैर या सत्त का चूर्ण) का सेवन करे ।
इसमें प्रान्त भोजन का विधान है। प्रान्त का अर्थ है नीरस भोजन । जैन परम्परा के अनुसार गच्छवासी मुनि के लिए यह विधि है कि वह प्रान्त भोजन मिलने पर उसे खाए ही, उसे कभी न फेंके । गच्छनिर्गत (जिनकल्पी) मुनि के लिए यह अनिवार्य है कि वह प्रान्त भोजन ही करे। अतः इस श्लोक में प्रयुक्त प्रान्त शब्द नीरस भोजन का वाचन है और आगे प्रयुक्त होने वाले सभी शब्द उसी की पुष्टि करते हैं । जैन आगमों में अनेक स्थलों में मुनि के विशेषण के रूप में 'अन्तप्रान्त भोजी' शब्द आता
तुलसी प्रज्ञा-३
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