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जाता है, 'कतु, अकतु अवयथा कर्तुं शक्यते' स: ईश्वर: है तथा 'आत्मा' से हमारा अभिप्राय उसी प्रकार के काल्पनिक अस्तित्व से है, जिसे अजर, अमर आदि विशेषणों से लाद दिया जाता है और जिसके बारे में कहा जाता है कि यह आग से जलता नहीं, पानी से गीला नहीं होता और हवा से सूखता नहीं, आदि ।'
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जैन दर्शन विषयक उनकी यह मान्यता भ्रामक है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा चैतन्य स्वरूप, परिणामी स्वरूप को अक्षुण्ण रखता हुआ विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होने वाला, कर्ता और भोक्ता, स्वयं अपनी सत्-असत प्रवृत्ति से शुभ-अशुभ कर्मों का संचय करने वाला और उनका फल भोगने वाला, स्वदेह परिमाण, न अणु, न विभु ( व्यापक ) किन्तु मध्यम परिमाण का है । २
जैन दर्शन आत्मवादी दर्शन है । उसका आदि, मध्य और अन्त आत्मा है । आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । आचार्य से पूछा - ज्ञान, दर्शन और चारित्र क्या है ?' आचार्य ने कहा- 'आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही दर्शन है और आत्मा ही चारित्र है ।' जैन साधना पद्धति का आदि-बिन्दु है कर्मयुक्त आत्मा और अन्तिम निष्पत्ति है कर्ममुक्त आत्मा । आवृत्त आत्मा को अनावृत्त करता हुआ साधक एक दिन उसे पूर्ण अनावृत्त कर देता है । वह स्वयं आत्मा से परमात्मा बन जाता है ।
भारतीय चिन्तन प्रवाह की दो धाराएं हैं- क्रियावादी धारा और अक्रियावादी धारा । दूसरे शब्दों में हम कहें तो आत्मवादी धारा और अनात्मवादी धारा या भौतिक धारा । आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष पर विश्वास करने वाले क्रियावादी और इन पर विश्वास नहीं करने वाले अक्रियावादी कहलाये । जैन एकान्ततः क्रियावादी दर्शन है । बौद्ध अपने को अनात्मवादी कहते हैं । वे आत्मा के अस्तित्व को वस्तुसत्य नहीं काल्पनिक संज्ञा मात्र मानते हैं। उनके अनुसार चेतना एक प्रवाह है जो क्षण-क्षण नष्ट और उत्पन्न होता है। इससे परे कोई नित्य आत्मा नहीं है । बौद्ध अनात्मवादी होते हुए भी कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष में विश्वास करते हैं ।
ऐसी स्थिति में उनका यह प्रश्न कि कहीं यह 'आत्मवाद' उत्तरकालीन ब्राह्मणी परम्पराओं द्वारा तो आरोपित नहीं है, स्वयं आधारशून्य है ।
उत्तराध्ययन ८।१६ की गाथा का अन्तिम चरण है- 'इइ दुप्पूरए इमे आया' - इतना दुष्पूर है यह आत्मा | यहां आत्मा से तात्पर्य है, संसारी जीव न कि विशुद्ध आत्मा । अतः यह लिखना कि 'लोभाभिभूत होना आत्मा का धर्म ही नहीं' - यह विशुद्ध आत्म तत्व के लिए हो सकता है, संसारी जीव के लिए नहीं ।
भदन्त जी का यह तर्क कि उत्तराध्ययन सूत्र में जो 'अप्पारण' 'अप्पाणमेव ' 'अप्पा' - आदि शब्द आये हैं, उनसे आत्मवाद का ग्रहण होता है, यह आधारशून्य है, आत्मा के तीन मुख्य अर्थ हैं - आत्मा, शरीर और स्व-अपना । आगमों में ये तीनों अर्थ प्राप्त हैं। जैसे
१. से आया (अप्पा) बाई - आयारो १५ : यहां अप्पा का अर्थ अखण्ड चेतन द्रव्य है ।
तुलसी प्रज्ञा- ३
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