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भावसाम्य, शैलीसाम्य तथा उपमा. नसाम्य का एक उदाहरण दर्शनीय हैजाव रणकोस विकास पावई ईसीसि मालई
___ कलिया। मअरन्द जारण लोहिल्लं भमर तावच्चिअ
मलेसि ।। - बिहारी का प्रसिद्ध दोहा इसी का भावानुवाद हैनहिं परागु नहिं मधुर मधु नहिं विकास
इहि काल । अली कली ही सों बंध्यो आगे कौन हवाल ।।
भक्त कवियों के पद तथा मुक्तक प्राकृत से ही प्रभावित हैं। न केवल काव्यरूप कहीं कहीं तो अद्भुत भावसाम्य पाया जाता है ।
___ उत्तराध्ययन की यह गाथा कि सिर मुडन से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार से कोई ब्राह्मण नहीं होता, न कोई अरण्यवास से मुनि होता है और न कोई कुशचीवर धारण करने से तपस्वी होता हैकबीर के इस दोहे में व्यक्त हुई हैकेसन कहा बिगारिया, जो मूडौं सौ बार। मन को क्यों नहीं मूडिये जा में विषय
विकार ॥ प्राकृत की कथानक-रूढ़ियां भी साहित्य में हिन्दी उपलब्ध हैं । पुनर्जन्म, योनिपरिवर्तन,स्वप्न, स्वर्ग-नर्क, परीलोक, समुद्र
विजय, आत्मघात, मूर्छा, कर्म गति, उपदेशग्रहण तथा तन्त्र-मन्त्र आदि रूढियां हिन्दी में प्राकृत से ही आयी हैं । पद्मावत का हीरामन सुआ, सिंहलद्वीप, समुद्र में तूफान आना प्राकृत ग्रन्थों में ही सर्वप्रथम दृष्टिगत होते हैं।
प्रकृतिचित्रण में षड् ऋतु वर्णन प्राकृत से प्रभावित है । प्राकृत-काव्यों में षड् ऋतु वर्णन आवश्यक रूप से वर्णित है। यद्यपि षड् ऋतु वर्णन की परम्परा प्राचीन संस्कृत में भी प्राप्त होती है, तथापि हिन्दी में इसका बहुलता से वर्णन प्राकृत के प्रभाव को द्योतित करता है।
प्राकृत ने जहाँ एक ओर संस्कृत के परम्परागत छंदों को अपनाया, वहीं दूसरी ओर लोककाव्य से मात्रिक, और तालवृत्तों को भी ग्रहण किया। गाहा, चौपाई, आर्या, स्कन्धक, पद्धडिया प्राकृत के प्रमुख छंद हैं । प्राकृत के घत्ता और हिन्दी के दोहा में बहुत साम्य है। इसी प्रकार प्राकृत के चौपाई और आर्या को भी हिन्दी कवियों ने स्पृहापूर्वक ग्रहण किया है।
प्राकृत के इस बहुविध उन्नत साहित्य ने हिन्दी को वस्तुचयन, वस्तुसगठन, कथानक रूढ़ि, काव्यरूप, छन्द, अलंकार, शब्दभंडार आदि प्रत्येक क्षेत्र में प्रभावित और सम्पत्र किया है।
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तुलसी प्रज्ञा-३
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