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भव शब्द मूलतः संस्कृत के हैं पर पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि मार्गों से उनके रंग में रञ्जित होकर अपना परिवर्तित रूप लेकर हिन्दी के समक्ष आ खड़े हुये हैं । रूढ़ शब्द विदेशी भाषा के शब्द हैं या स्वतन्त्र देशी शब्द | इनकी संख्या अत्यल्प है |
हिन्दी की तत्सम शब्दावली के ज्ञान के लिये जहां संस्कृत का ज्ञान अपेक्षित है, वहां उसकी तद्भव शब्दावली के ज्ञान के लिये प्राकृत का ज्ञान नितान्त आवश्यक है । हिन्दी के ऐसे शब्द जिनका संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है वे प्राकृत भाषा में मिलते हैं जैसे चुल्लीह (चूल्हा), उत्थल्ल ( उथल), उल्लुट ( उलटा ), उडिद ( उड़द), ओढणं (ओढ़नी), खड्डा (गड्ढा), खड़क्की ( खिड़की), खाइया (खाई), झुट्ठ (झूठ ), चाउला (चांवल ), घग्घर (घाघरा), झमाल ( झमेला) झाड़, ढंकणी ( ढकनी ), तग्ग ( तागा) आदि ।
प्राकृत साहित्य ने हिन्दी साहित्य को भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से विकसित किया है । प्राकृत चरित काव्यों
हिन्दी का पथ-प्रदर्शन किया । प्राकृत सिरिचिंध कव्व, सोरिचरित, उसाणिसद्ध, कंसवहो आदि में वर्णित कृष्णकथा को भक्ति और रीतिकालीन कवियों ने विस्तृतरूप में ग्रहण किया । ऐतिहासिक कथावस्तुओं में अजातशत्र, और उसके सौतेले भाइयों की कथा तथा कन्नौज नरेश के वध की कथा भी प्राकृत से हिन्दी में गृहीत कथानक है । जायसी के पद्मावत का उपजीव्य तो प्राकृत का रयणसे हर निवकहा ही है । इसके अतिरिक्त सूफी कवियों के समस्त प्रेमाख्यानक काव्य प्राकृत की प्रेम कथाओं से प्रभावित हैं। इस विषय में डा. बाहरी का कथन द्रष्टव्य है- 'हिन्दी में
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सूफी - साहित्य के सारे के सारे कथानक प्राकृत साहित्य उद्घृत जान पड़ते हैं । इसके अतिरिक्त भी जो प्रेमाख्यान हिन्दी में हैं, उनकी शैली पर प्राकृत का प्रभाव है ।' वसुदेवहिण्डी, पउमचरिय आदि चरितकाव्यों के आधार पर ही हिन्दी के रासो काव्य की सर्जना हुई है ।
काव्यरूपों के अन्तर्गत चरितकाव्य, प्रेमाख्यानक काव्य, गीत और पद- परम्परा हिन्दीसाहित्य को प्राकृत साहित्य की देन है । पूर्वजन्म, अलौकिक घटनाएं, प्रकृति चित्रण तथा नगर - दुर्ग आदि स्थानों के वर्णन की परम्परा प्राकृत से ही हिन्दी में आई है । अपभ्रंश ने इन सभी प्रवृत्तियों को अपनाया और उसी से प्रभावित होकर हिन्दी में वीरसिंहदेवचरित, रामचरित, बुद्धचरित, सुजानचरित और सुदामाचरित आदि अनेक चरितकाव्यों की रचना हुई ।
मुक्तक रचना का सर्वाधिक लोकप्रिय रूप है सतसई - परम्परा | हिन्दी की सतसई परम्परा का श्रेष्ठतम ग्रन्थ बिहारी सतसई है। बिहारी सतसई का सूक्ष्म परीक्षण करने से स्पष्ट दृष्टिगत होता है कि बिहारी ने गाहासतसई को आदर्श मानकर अपनी सतसई की रचना की थी । भाव, भाषा, अभिव्यंजना शैली सभी दृष्टि से प्रत्येक क्षेत्र में यह गाहासतसई से प्रभावित और प्रेरित है । गाहासतसई की भांति यह भी बहुविषयक होते हुये भी गारप्रधान है। गाहासतसई का गारवर्णन यथार्थमूलक है, बिहारी सतसई में श्रृंगार का मुक्त वर्णन है । कहीं कहीं तो गाहासतसई की गाथा बिहारी सतसई के दोहों में अद्भुत समता है ।
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तुलसी प्रज्ञा- ३
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