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प्राकृत साहित्य का हिन्दी साहित्य
के विकास में योगदान
डॉ. कुसुम पटोरिया
से भी भारत के मध्यदेश की भाषा ही परिनिष्ठित और सर्वमान्य भाषा रही है। इस परम्परा को भी दृष्टि में रखते हुए राष्ट्रप्रेमी नेताओं ने हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा के महनीय पद पर अभिषिक्त किया
भारतवर्ष में भावात्मक एकता की समस्या एक ज्वलन्त समस्या है। विगत दशकों में देश में घटित विच्छेदवादी प्रवृत्तियाँ हमारी अखण्डता की दरारों को निदर्शित करती हैं। भाषागत वैमनस्य इन विच्छेदवादी प्रवृत्तियों का पोषक रहा है। व्याकरण की जटिलता और रूपा. धिक्यता के कारण संस्कृत को राष्ट्रभाषा के महनीय पद पर अभिषिक्त नहीं किया गया। अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को इस सम्माननीय पद पर प्रतिष्ठित करना एक स्वतन्त्र व स्वाभिमानी राष्ट्र के लिये अपमानजनक है । अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में अधिक सम्पन्न, सुविकसित तथा बहुभाषित होने के साथ-साथ हिन्दी के व्याकरण की सरल प्रकृति भी इसे राष्ट्रभाषा पद पर अभिषिक्त होने की पात्रता प्रदान करती है । परम्परागत रूप
हिन्दी भाषा पर यह आरोप लगाया जाता है कि हिन्दी का शब्दसामर्थ्य सीमित है, उसमें भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने की क्षमता नहीं है । यह आरोप निराधार है, क्योंकि हिन्दी संस्कृत की उत्तराधिकारिणी है और संस्कृत विश्व की सर्वाधिक सम्पन्न भाषा है, इसमें अर्थगाम्भीर्य की सामर्थ्य प्रचुरमात्रा में है। हिन्दी के शब्दों का विभाजन तत्सम, तद्भव और रूढ तीन भागों में है । तत्सम शब्द संस्कृत से सीधे आकर अविकृत रूप में संस्कृत को अलंकृत कर रहे हैं। तद् .
तुलसी प्रज्ञा-३
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