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गिरि । पौष माघ सी ठण्ड उन्हाळो प्रांख्यां लखी। आखिर पड़या अखण्ड ऊनी कपड़ा
ओढ़णा ।।" 34 (५) श्रद्धांजलि (१) श्रद्धय के प्रति(राजस्थानी विभाग)
___ इस में देवगुरु और धर्म की स्तवना के रूप में रचित गीतिकाएं हैं। ये गीतिकाएं प्रायः संघीय उत्सवों के अवसर पर समग्ति श्रद्धांजलि के रूप में समर्पित की गई हैं । पुस्तक रूप में इसका प्रकाशन सन् १९६१ में आत्माराम एण्ड सन्स दिल्ली के द्वारा हो चुका है। उसमें दो विभाग हैं-हिन्दी और राजस्थानी। राजस्थानी विभाग में २१ गीतिकाएं और कुछ सोरठे आदि छन्द हैं जिनके २७७ पद्य हैं । विशेष जानकारी के लिए पुस्तक दृष्टव्य है। (२) मोच्छब री ढाळां
तेरापंथ संघ में ३ महोत्सव (पट्टोत्सव, चर्मोत्सव और मर्यादा महोत्सव) अपना विशेष महत्व रखते हैं । प्रस्तुत कृति में चरमोत्सव और माघोत्सव पर गाई गई २६ गीतिकाएं हैं जिनमें ५६० गाथा तथा १३ कवित्त हैं। इनमें अनुप्रास और सन्देह अलंकार के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में 'आचार्य भिक्षु' के प्रति कहे गये एक कवित्त का अवलोकन कीजिए - 'विश्व की विभूति थी क संभू की सबूती किंवा मूर्ति मजबूती थी मनोज के किनार
मति छेक शुक्ल सूति के दिदार में ॥ (३) संत-सती गुण वर्णन
इस कृति में अपनी साधना को सानंद संपन्न करने वाले कुछ विशेष साधु • माध्वियों के यशस्वी जीवन-वृत्त को संक्षिप्त रूप में अभिव्यक्त करने वाली २४ ढाळे हैं, जिनमें २८० गाथा तथा ३० सोरठे हैं । शब्दालंकार की दृष्टि से अनुप्रास और यमक का एक नमूना 'बालमुनि कनक' के प्रति कहे गये 'सोरठे' में अवलोकनीय है"शिशुवय सयम साध, हिम्मत राखण हद
करी। निवड़ियो निरखाद 'कनक' कनक सौ टंच
नों।" (४) स्मृति पदावलि
इस शीर्षक के अन्तर्गत सैकड़ों पद्य हैं, जिन्हें स्वर्गीय साधु-साध्वी और श्रावकश्राविकाओं की स्मृति के रूप में कहा गया है। ये बिखरे हुए हैं अत: इनकी पूरी संख्या बताना अभी कठिन है। (५) पत्र
पत्र एक ऐसा माध्यम है जिसमें व्यक्ति के मानस का प्रतिबिम्ब तो मिलता ही है साथ ही साथ सम-सामयिक परिस्थितियां और इतिहास की भी काफी अलभ्य सामग्री उपलब्ध हो जाती है। इस दृष्टि से आचार्य श्री के अनेक पत्रों को लिया जा सकता है। राजस्थानी भाषा में लिखे गये इन पत्रों की संख्या १५० से अधिक है। ये समय समय पर अपने संयमी संदेशवाहकों के साथ भेजे गये हैं । इनमें मंत्री मुनि मगनलालजी, साध्वी-प्रमुखा महासति लाडांजी तथा मातुश्री वदनांजी को लिखे गये पत्र विशेष उल्लेखनीय हैं । संघीय दृष्टि से
कठिन करुति थी कठोर कलिकाठ हेत मार बिन नूति थी कुनीति के प्रचार में । रंग रजपूतो कहीं जंग बिच थी क प्राणों की आहूती थी विराग या गवार में। कहीं करतूती नहीं कल्पना अन्हूती एक छेक
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तुलसी प्रज्ञा-३
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