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हांती नो हकदार जे थयो सोले देश सिरदार | उलटी गंगा इम बहै थयो मैं हांती हकदार ||' १८
(२) नीत रो प्यालो
'नीत के पीछे बरकत' इस सूक्ति को स्पष्ट करने वाली इस कृति के ५२ पद्य हैं। इसकी रचना संवत् २०१५ आसोज शुक्ला १२, कानपुर में हुई है । कृषि में मस्त और श्रम में व्यस्त ग्रामीण बुढ़िया से अपनी धरती की प्रशंसा और सीधे-सादे जीवन की बात सुनिये -
'वीरा धरती म्हारी रे दुखियां री आधार । धरती म्हारी प्राणां स्यू ज्यारी मन बछित दातार ।। अम्बर बरसे धरती दूर्झ, पौबारा पच्चीस । और राजारी पूरी-पूरी म्हाने है बगसीस || दो आनी भर कर म्हारे पर नहीं कोई ओचाट । थोड़ी सी आ महनत मांगे, घणा दिखावै
ठाठ ||
आराम ।
दूध-दही दे भैस्यां गायां आठ पौर धान भरो कोठा में म्हारे नहीं
खटपट
रो काम ।। म्हे महनत रो खाणो खावां मौज उडावां रोज | राखां नहिं माथे पर वीरा ! म्है कोई रो बोझ ।। सच्चावट रो लेणो-देखो नहिं कोई जाणां चोज । कमज्या सारू खरचो राखां म्है हा राजा भोज ||
(३) गजसुकुमाल
'आत्मा भिन्न और शरीर भिन्न है'
तुलसी प्रज्ञा-३
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इसी तथ्य को साकार रूप देने वाली इस कृति में ७ ढाळों के ६५ पद्य हैं। बीभत्स रस का एक उदाहरण श्मशान की विभीषिका के वर्णन में देखा जा सकता है
'जंगल की कृति झांय-झांय चिहुं ओर जल शव सांय-साय |
अधजले मृतक कहि परे, गीध चांचों से छोले छाल || कहि पड़े अस्थि के ढेर - ढेर, कहिं करे फेरू गरण फेर फेर । फंफेर कलेवर कहीं शुनिसुत खाते खोद
निकाल ॥ नरमुण्ड माल धर प्रेत कहीं मिल अट्टहास करते उमही । कायर को जंह कमजोर कलेजो देख्त होत दुडाल || शाकिनी शव जोवे टगर-टगर । मानव मुख मगर न दिखें कहां निशि भर मधान्ह विचाल ||' १६
डाकिनी के डेरे डगर-डगर
( ४ ) शालिभद्र और धन्नजी सौभाग्य और त्याग के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में इस आख्यान को प्रस्तुत किया जा सकता है। आचार्य श्री के शब्दों से ही शालिभद्र की ऋद्धि से साक्षात्कार कीजिए
'मक्खन सम मुदुल तूल शय्या महके मनु खुशबू खान खुली, गुंजाब मधुकर करते उपवन सी आभा खूब खिलो चिहु तरफ बरफ सी शीत- समीरण झीणां वीणां की भंकार बजे आलय को अनुपम दृश्य अदृश्य गगन सह मनु संवाद करें..
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