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________________ कठै बै श्रीकालू वरद कर म्हारे शिर धरयो मन पाळयो पोस्यो मधु-मधुर शिक्षामृत भरघो । 'म्हारे सम्मुख एक बार फिर स्यू सारो निजारो दिखा, सारी सारण-वारणां गुरूवरू मोने दुबारा सिखा । मैं ज्यू त्यू एकर स्यू बस्यू ं हृदय में आंख स्यू झांक स् तो म्हारे मनरा मनोरथ फळं साक्षात् स्वयं आंकल्यू ं ।।'१६ जन्म (५) छोगांजी रो छव ढाळियो साध्वी श्री छोगांजी का ११०१ आषाढ़ कृष्णा ४ दीक्षा १६४४ आसोज शुक्ला ३ स्वर्गवास १९६७ चैत्र कृष्णा ११ बीदासर में हुआ था । आप अष्टामाचार्य श्री कालूगरिण की जननी थीं । स्वाध्याय, ध्यान और तपस्या ही आपका जीवन था । आपने ९६ वर्षों के जीवन में २१ वर्ष से अधिक तपस्या की थी । प्रस्तुत कृति में आपके जीवन पर अथ से इति तक प्रकाश डाला गया है । इसमें ६ थाळ एक अन्तरढाळ और अन्त में एक सिलोका है । कुल पद्य १७४ हैं । राजस्थानी कृतियों में ग्रन्थ रूप में आचार्य श्री की यह प्रथम कृति है । इसकी सरसता प्रदर्शित करने के लिए एक ही पद्य काफी है। इसमें अनुप्रास, यमक और रूपक तीनों ही आपको मिल जाएंगे - 'सुकृत- समुद्र कलानिधि, कला कलानिधि सिंधु । भावुक भ्रम तामस हरण, श्रीकालू शरदिन्दु ।। १७ - २. श्राख्यान २२ इस वर्ग के अन्तर्गत आचार्य श्री Jain Education International की १७ कृतियों को लिया जा सकता है । जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है इनमें ऐतिहासिक, लोकप्रचलित और आगमिक कथानकों को सरल - सरस, पद्यमयी भाषा में रचा गया है। इनका उद्देश्य है जन-जन में व्याप्त अनेक बुराइयों का परिष्कार और आध्यात्मिकता का प्रसार । (१) राजर्षि उदाई सिंधु और सौवीर देश के अधिपति महाराज उदाई के कथानक को हृदयग्राही ढंग से प्रस्तुत करने वाली इस कृति में १८ मुख्य ढाल तथा कुछ अंतरढाळें भी हैं। जिनकी कुल पद्य - संख्या १८८ है । इसके कई स्थल मार्मिक और करुण रस से ओत प्रोत हैं । महाराज उदाई दीक्षित होते समय पुत्र की सहमति के बिना अपने भानेज केशी को राज्य दे देते हैं । उस समय राजकुमार अभीच की मनोदशा को अभिव्यक्त करने वाले करुण रस से भरे विलाप का रूपक के रूप में एक चित्र दृष्टव्य है 'म्हारो महल लुटायो" दीन वदन गद्गद् स्वरे बोले कुंवर अभीच । नया निररणां जिम भरें करें मुखागल कीच ॥ ना कोई तस्कर आवियो न कोई पाड़ी धाड़ । तो विरण ना रही ईंटड़ी तिह कारण ताड़ाफाड़ ।। आंधी उदधि थी उठी जल बिच लागी आग रक्षक ते भक्षक थया, हा-हा हूँ हत भाग । सोस्यू ं नूतन सदन में धरतो आश विशाल । भाणों पुरस्यो ही रह्यो ( मानो) बिचही खुल्यो कपाल || तुलसी प्रज्ञा- ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524503
Book TitleTulsi Prajna 1975 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Gelada
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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