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गुच्छलत्ता स्यू वच्छलत्ता स्यू. पथ श्रम पथिक निवारै, सारे गोगुन्दा री
सोम मैं हो सीम मैं ॥ आंकी बांकी बहे बाहिन्या रहे निरन्तर नीर लम्बा चौड़ा खाळ नाळचा हर पथिक श्रम
पीर
चट्टानां मैदाना ज्यू महमांना नै सतकार सार,गोगुन्दा री सीम
मैं हो सीम मैं ।। जांगळ जीव भेड़िया भालू, सांभर, शशक,
सियार, काळा, मोडा और चीकला, हिरणां री
भरमार लम्बड़पूछो, बांदर छूछा, उछळकूद तरु डारै सारै, गोगुन्दा री सीम
___ मैं हो सीम मैं ॥ जेठ मास में भी सल मैं सीयाळे सो सी कांबळ ओढ़यां भीतर पोढ़यां ही भाग
मन भी पर माछरड़ा, मांकरण सरडा अंदर अंग विदार, सारै गोगुन्दा री सीम
मैं हो सीम मैं ।। बिरखा पड़े विमात्रा पण है कामणियां रो
जोर कई दिनां स्यू सूरज दोस, मुश्किल पोर
दुपौर रिमझिम बरस कण-कण सरस भू-भागिनि सिणगार, सारं गोगुन्दा री
सीम मैं हो सीम मैं ॥"१ 3 मेवाड़ के लोगों का सादा जीवन, शुद्ध चर्या और श्रमनिष्ठा वस्तुतः बेजोड़ है । साधु-समागम की सूचना पाते हैं तो वे सम्मुच्छिम जीवों की तरह सहस्रों की संख्या में कंधों पर बिस्तर और खानेपीने का सामान हाथ में लिए पैदल ही
मगरों के मार्ग को मिनटों में लांघते हुए अपने लक्ष्य को साध लेते हैं। जहां अवसर मिला मरदानी खाना अर्थात् दाल. बाटी पकाई, खाई और बस न कोई झंझट न कोई खटपट । 'मिनटां मैं जीव छमुच्छिम रो ढिग लागे, त्यू मेदपाट जनता झिगमिग कर जागै, खांधां धर बिस्तर पगां बिदा हो ज्यावै मगरां रो मारग मिनटां मैं संघ ज्याव' 'जात्रा में मिल मरदानी खाणों खावे जगरा मैं बाट्यां सेक शुद्ध घी पावै उड़दां री दाळ चूर मृ शिघ्र समेटै नहीं अठी बठी कहीं उलझ लफरै लेठे' 'श्रम में नहीं शरम अमीरी अंग नहीं है सादो जीवन और चर्या शुद्ध रही है' ५४ ___अध्ययन की दृष्टि से मंत्री मुनि का गृहस्थपन में सिर्फ दो महीने का समय लगा था उसमें बारह आना अर्थात पौन रुपया खर्च हुआ था। इस बात पर व्यंग
करते हुए आचार्य श्री ने लिखा है-पौन ___ रुपये के व्यय से ही वे इतने बुद्धिमान बन
गये थे, अगर पूरा रुपया लगा देते तो कोई नया ही रंग खिलता'दो महीनां री करी पढ़ाई, बारह आना
रकम लगाई। सोलह आना अगर खरचतो, तो कोई रंग
अनोखो रचतो ॥१५ शिष्य का संसार सुगुरू में ही केन्द्रित रहता है, सुगुरू से बिछुड़कर जब वह उनकी स्मृति में डूबता है उसकी क्या स्थिति होती है और क्या कामना करता है इसका चित्र प्रस्तुत है शिखरिणी और शार्दूल विक्रिडित छंदों में - अरे रे ! वै रातां विगत दिन बातां समरतां, भरीज है छाती विरह दुख बाती उभरतां ।
तुलसी प्रज्ञा-३
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