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__मदुताई,
जंतर-मंतर और नाहरगढ़ गीतां मैं गाईजै। प्रस्तुत की गई है। उन्हें तेरापंथ के पांच ढळतो ही दीखै टाइम जद गळतो स्हामो आचार्यों का युग देखने का अवसर मिला
आवै ।। था। इसी बात को ध्यान में रखते हुए घाट और निशियां जळ महला अनेक आचार्य श्री ने इस ग्रन्थ को ५ युगों में
लोक आलोके, विभक्त किया है। पंक्तिबद्ध प्रासाद शहर रा, बरबस जन
छठा विभाग है, जीवन-झांकी । ___ मन रोक ।
जिसमें मंत्री मुनि के मधुर संस्मरणों को गज निमिलिका गळयां देख, कुण गुण मैं
नोंध रूप में प्रस्तुत किया गया है और अवगुण गावै ।।
अन्त में प्रशस्ति-प्रकरण में रचना-काल में मिल ना शुद्धाचार विचार, मनो मोदक
होने वाली यात्रा और समागत बाधाओं
का उल्लेख करते हुए उसकी पूर्ति आदि (तो) केवल बर्फी कलाकंद की, कुणसी
की सूचना दी गई है । तदनुसार इसकी कही बडाई।
पूर्ति ८ जुलाई १९७१ के दिन (चंदेरी) जयपुर जनता धार्मिकता री, सुन्दर शान
लाडनू में हुई है । इसके लगभग १००० बढ़ावै ।।' १०
पद्य हैं। जिन्हें दूहा, सोरठा, सहनाणी थली प्रदेश में एक उक्ति प्रच
छंद, लावणी छंद, चौपाई, कलश, अपलित है:
जाति, शिखरिणी, शार्दूल-विक्रीडित, "जो नहीं देख्यो जयपुरियो । हरिगीतक, रामायण आदि छंदों के अतितो कुळ में आकर के करियो ।" रिक्त लगभग २० लयों में लिखा गया अर्थात् सब कुछ देख लिया पर
है। कृति की भाषा सरस · और प्रांजल अगर जयपुर नहीं देखा तो कुल में जन्म लेकर ही क्या किया। उपरोक्त पद्यों में
काव्य में वही कवि सफल हो चित्रित दर्शनीय स्थलों से भरपूर जयपुर सकता है जो प्रकृति के कण-कण से का मनोरम सौंदर्य देखने के बाद यह उक्ति अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है । अन्यथा प्रतीत नहीं होती।
प्राकृतिक दृश्य, ऋतुए, स्थानीय लोगों का (४) मगन चरित्र
रहन-सहन और क्षेत्रीय खान-पान आदि मंत्री मुनि श्री मगनलालजी तेरा
की बातें सभी जानते हैं किन्तु कवि की पंथ संघ के उन मनीषी. मुनियों में थे,
अनुभूति का मिश्रण पाकर जब वे लेखनी जिन्होंने अपने कर्तव्य और बुद्धि-कौशल
का विषय बनती हैं तब नया ही रंग से सारे संघ पर एक विशेष प्रभाव जमा
खिल जाता है। नमूने के तौर पर कर आबाल वृद्ध की श्रद्धा अजित करली
देखिये - थी। वे उन विरल विशेषताओं के कारण "मोटा-मोटा है शैल खड्या, वृक्षावळियां संघ में सर्वप्रथम 'मंत्री' को सम्मान्य
स्यूहर चा-भरया, उपाधि से विभूषित किए गए थे। इस ___ नदियां नाळां रो पार नहीं, तालाब जमीं कृति में उनकी घटना प्रधान जीवन झांकी
स्यू जड्या-पड्या।
तुलसी प्रज्ञा-३
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