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(२) डालिम चरित्र
श्री डालगणि तेरापंथ के सप्तम आचार्य थे। वे मालव देश की राजधानी उज्जयनि के निवासी थे । उनका जन्म आषाढ़ शुक्ला ४ संवत् १९०६ , दीक्षा सं० १९२३ भाद्रव कृष्णा १२, अग्रणी सं. १६३० आचार्य पद चुनाव १९५४ पौष कृष्णा ३ । स्वर्गवास १९६६ भाद्रपद शुक्ला २ लाडनू में हुआ। प्रस्तुत काव्य में उनके प्रभावक जीवन-चरित्र को अत्यन्त रोचक ढंग से ग्रथित किया गया है। इसके दो खण्ड हैं। वे ४१ ढाळों में विभक्त हैं ! उनकी पद्य संख्या १३४५ है । इसकी रचना २०१३ भाद्रव कृष्णा ५ रविवार के दिन सरदारशहर में प्रारम्भ होती है और पूर्ति २०१८ श्रावणी पूर्णिमा के दिन बीदासर में । काव्य की भाषा सरस और शैली प्रांजल है। कहीं-कहीं तो कवि की लेखनी यों चली है मानो एक ही सांस में सब कुछ कह जाना चाहती हो। उदाहरण के रूप में देखिये तेरापंथ के छठे आचार्य माणकगणि के अचानक दिवंगत होने का चित्रण सहनाणी की लय में"ओ बिना बगत सूरज छिपग्यो, लाग है
__ अंबरियो ऊणों। बुझग्यो दीपक जो जगमगतो करग्यो सगले
घर नै सूनो॥ तारा-नक्षत्र घणां नभ मैं पिण चांद बिना
फीका लागे। शासण सारो सब साध-सत्यां शोभे शास
णपति र सागै ॥ दुधारू गायां गोकल री ओ सूनो छोड़
__ गयो ग्वालो। खेती लहराव खड़ी खड़ी पण आज कठ
है रखवालो ।
है से ना सगळी कड़ाजूड़ पण सेणापति
कोनी आगे । शासन रा सारा संत-सत्यां शोभे शासण
पति र सागै ॥ रथ खड़यों संभ्योड़ो झणहणतो पण आज
__ कठे हांकण हारो। सामान पड़यो सब मूआगे पण आज कठ
है चेजारो॥ असवार बिना रा घोडां नै बोलो जी जोश
कियां जागे । शासण रा सारा संत-सत्यां शोभे शासण
पति र सागै ॥". माणक गणि के स्वर्गस्थ होने के बाद सारा संघ चिन्तित था कि भावी आचार्य के निर्वाचन में कोई सांविधानिक व्यवस्था के न होने से निर्णय किस प्रकार से लिया जा सकेगा? यह एक संघ का बहुत बड़ा परीक्षणकाल था। उसी परिस्थिति में संघ के सदस्यों की मनोभावना का वास्तविक वर्णन कितना सामयिक है"संतां ! गौरवशाली शासण है सदा स्यू
___ आपणों। इण ने द्रोपदी के चीर ज्यू बढ़तो ही
राखणों ॥ असली सोनो जिया-जियां आग मैं तपैला। संतां ! बियां-बियां तेज बीरों बधसी
घणों॥ नन्दनवण मैं आयो झोलो आज ओ
____ अणचिन्त्यो । संतां ! सीख्या कोनी कदेई आपां तो
__कांपणों ॥ आपांने तो आपारी ही रीत मैं है चालणों। संतां ! अवळी-सवळी बातां करसी जणो
जणों।"
तुलसी प्रज्ञा-३
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