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"पतित उद्धार पधारिये, संगे सब लही
ठाठ। मेदपाट नी मेदनी जोवे खड़ी-खड़ी बाट ॥ सघन शिलोच्चय ने मिषै ऊंचा करि-करि
हाथ । चंचल दल शिखरी मिर्ष दे झाला
जगन्नाथ ।। नयणां विरह तुमारडै झरै निझरणा जास। भ्रमराराव भ्रमै करी, लहै लाम्बा
निःश्वास ॥ कोकिल कूजन व्याज थी, वतिराज उड़ावै
काग। अरघट खट खटका करी दिल खटक
दिखावै जाग ।। मैं अबला अचला रही किम पहुंचे मम
संदेश । इम झर-झर मनु भूरणां संकोच्यो तनु
सुविशेष ॥"५ प्रकृति के प्रति आचार्यश्री के हृदय में अनुपम अनुराग है । जरा सा अवकाश मिलते ही वह अनायास ही प्रस्फुटित हो उठता है। आइये अब हम मेवाड़ प्रदेश के नयनाभिराम दृश्यों की ओर चलें - "मांजरियां हरियां जिहां, सौहे द्रुम
सहकार । कोकलियां खिलियां करै, कुहुक-कुहुक
टहुकार ।। आन मिठास चिठास नी, सौरभ ही भर
साख। दरखत छायां निरखतां (हुवै) पथिक
__ शयन अभिलाख । मधुकर गुजारव मिषे लहु मधुनो आस्वाद । नहिं नहिं कहि एहवो मधु, एम करै संवाद।। इंगरिया गरिया घणां हरिया-भरिया
भाल ।
सामरियां बिन कुण रहे दरियानी सेवाल"६
मधुकर के गुजन में मेवाड़ी मधु की महत्ता का निनाद आप नहीं सुन सकते, अगर ये पद्य आपके सामने नहीं होते।
इस प्रकार अनेक स्थल हैं, जिन्हें पढ़कर हम प्रकृति से सीधा साक्षात्कार कर सकते हैं, पर निबन्ध की भी अपनी सीमा होती है। स्थूल परिचय
इस महाकाव्य के दो भाग हैं, पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध । दोनों भागों में छः खण्ड हैं जिन्हें उल्लास शब्द से अभिहित किया गया है। प्रत्येक उल्लास में छ-छ मुख्य विषय तथा अठारह-अठारह ढालें हैं । दूसरे उल्लास में उन्नीस ढालें होने से उन सबकी सम्मिलित संख्या १०६ हो जाती है। कहीं-कहीं प्रसंगानुसार अंतर ढाळें भी रखी गई हैं। ये सब श्रुति-मधुर प्राचीन लोक गीतों और भजनों की धुनों में हैं। प्रत्येक उल्लास के प्रारम्भ और समापन में संस्कृत भाषा के विभिन्न वृत्तों और प्रांजल गद्य का प्रयोग हुआ है, इनके अतिरिक्त दूहा, सोरठा छप्पय, मनोहर, गीतक, मोतीदाम आदि छंद भी पर्याप्त मात्रा में हैं । कुल मिलाकर समग्र ग्रंथ का अनुष्टुप् पद्य परिणाम ग्रन्थान ६६४३ हैं। इसका प्रारम्भ सं० १६६६ फाल्गुन शुक्ला ३ मोमासर (चूरू) में हुआ था किन्तु विशेष कारणवश बीच में काफी समय तक इसका कार्य बंद रहा, इसकी पूर्ति सं० २००० भाद्रव शुक्ला ६ सायंकाल (कालूगरिण के चरम दिवस) के दिन ठीक उसी समय गंगाशहर (बीकानेर) में हुई है।
तुलसी प्रज्ञा-३
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