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________________ बरसाती नदियां जलद से अपरिमित जल पाकर बड़े वेग से बहती हैं, परन्तु जल के उतरने के बाद उन्हीं नदियों की चर में धूल उड़ती नजर आती है। तथ्य के रूप में पराया धन पाकर फूलने वाले की यही गति होती है । "बढ़ती बढ़ती ही बढ़ शनैशन शुरुआत । बा कलारण उतराद री सज्जन प्रीति __ सुजात ।।" बतलाने वाले पद्य उक्ति-वैचित्र्य और उपमा की दृष्टि से आश्चर्योत्पादक हैं । इसी वर्णन में आपका कवि-मानस पाले के कारण होने वाले बेचारे अर्कपत्र के विनाश के साथ सहानुभूति दिखलाना और ऊंट ( जाखेड़ा ) के उत्कर्ष को भी नहीं भूला है। ___ कवि यथार्थदर्शी होता है। वह प्रकृति के सूक्ष्म परिवर्तन को भी हृदयंगम कर उसे अपनी प्रतिभा का परिधान पहना कर सनातन सत्य को प्रगट कर देता है । वर्षा का समय है। आकाश में चारों ओर बादल मंडरा रहे हैं। अनुकूल और प्रतिकूल पवन की प्रेरणा पाकर वे कभी बन रहे हैं और कभी बिगड़ रहे हैं। इसी रहस्य को व्यक्त करने वाले पद्य हैं"दुर्जन मन धन री हुवै, एक रीत विख्यात् । प्राप्त पराई प्रेरणा, बिगड़े बरणं छणात् ।।" दूसरे की प्रेरणा पाकर क्षण में बनने और बिगड़ने वाले दुर्जन के मन से घन की तुलना कितनी वास्तविक है। श्लेषालंकार का चमत्कार देखिये"अब्धि शेष शय्या तजी, सझी वेश ___ अभिराम । जाणं क्यू नभ मैं कियो, घनश्याम विश्राम।" 'घनश्याम' शब्द को कजरारे बादल और विष्णु के रूप में पूर्णतः घटित करना कितना मनोरम है। कुछ पद्यों को तो पढ़ने से सूक्तियों का सा स्वाद आता हैपरधन पा फूल सघन विधि दुकूल उन्मूल। सौ बरसाती सुरसरी कबुही उड़ासी धूल ॥ थली प्रदेश में उत्तर दिशा से उमड़-घुमड़ कर आने वाली वर्षा को 'उतरादी कलायण' कहते हैं, उसका प्रारंभ छोटी सी बदली से होता है और धीरे-धीरे वह सारे आकाश को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लेती है । उसी कलायण की सज्जनों की प्रीति से तुलना कितनी उपयुक्त है। रूपक अलंकार का एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत है"शिशिर एकतो शीततम,इतर धाम बिन अंत । सदा शान्त मध्यस्थ मन, संत सरूप वसंत ॥' वसंत ऋतु से पहले शिशिर ऋतु में भयंकर सर्दी रहती है, तो दूसरी ओर वसन्त के बाद ग्रीष्म ऋतु में भयंकर गर्मी। सर्दी और गर्मी दोनों से ही अप्रभावित रहता हुआ वसंत संत के समान मध्यस्थ है। वसंत का संत के रूप में अंकन बिल्कुल नया प्रयोग है। ___ रूपक की दृष्टि से दूसरा उदाहरण मेवाड़ प्रदेश के श्रद्धालु भक्तों की भावना को अभिव्यक्त करने वाले पद्यों में पढ़िये तुलसी प्रज्ञा-३ १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524503
Book TitleTulsi Prajna 1975 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Gelada
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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