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पोंछते पोंछते हाथ हैरान हो गये हैं । लोगों के शरीर पर फुंसी-फोड़े उभर रहे हैं मानो जमीन पर जगह-जगह भू फोड़े उभर आये हों । कितना सीधा और मार्मिक वर्णन है ।
ग्रीष्म ऋतु भयानक है तो शीत ऋतु क्या उससे कम है ? आइये अब निम्नलिखित पंक्तियों से शीत ऋतु में प्रवेश करें
"थरथर कांपे सारो तन दिन भर नहीं आळसड़ो जावें । सिरखां - सोड़ां मैं भी सी-सी करतां नींदड़ली उड़ ज्यावं ।। जदि हाथ रहे गाभां बाहर मिनटों में बरगज्या ठाकर सो । हा हा बो के करतो होसी मुख निकल पड़े रव साकर सो | हाथ-पैरां में व्याऊड़ी फाटै जिम पर्वत खोगाळा || कालूटो चेहरो पड़ ज्यावें जल ज्यावे चमड़ी सियाळां ॥ बेळू टीलां री बा धरती पग धरत पराया सा पड़सी । भरती आंख्यां भरती नाकां कर शाखा करड़ी कंकरसी || जब शिमले खानी बरफ पड़ थळियां में ठण्डी बाळ चळ | जाडा गाभां स्यू जड़ अंग मां स्यू खट आरोपार खळं || ठण्डो जळ पड़यो गड़ो सोह्र पीतां काळेजां डीक उठे । दांतां-जाडां जदि ददं हुवै सहसा मुखड़े यूं चीख उठ ।। भीणी-झीणी निशि ओस पड़ झांझरक जम ज्यावे जंगल ।
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जंगळ जा हाथ उजळ करतां जाड़े स्यू बर्फ हुवे जम जळ ||
धोरां धोरां मैं धोळा सा चांदी का जार क बर्ग बिछे ।
जम जाय जलाशय भी सतीर कितनी सुन्दर तस्वीर खिचं ॥
है खबर अमर दाहो पड़ज्या ल्यो पहल आकड़ां री बारी ।
जळ ज्या बिन आग लपट्टां के बेचारां री भारी ख्यारी ||
सूखा लक्कड़ जळ खाक हुवे लखदाद पड़े हो । एह जाड़े की जोखिम मैं जाखेड़ा केवल ले लाहो ॥ जब मौसम पोवट - मावट री बो बिना बगत रो मेहड़लो । डकारयां डांकरड़ी बाजे धुंवरली तर्ज ने नेहड़लो || सूरज भी तेज तपै कोनी जाड़ स्यू डरतो बेग छु । सिगड़यां सारी रातां सिलगे पाणी स्यू ं
हाथ न पैर धुपे ॥'
शीतकाल में होने वाली व्यथाओं को अंकित करते समय कवि की कलम ने कमाल कर दिखाया है। ऐसा लगता है मानो हम शीतकाल में विहरण कर रहे हैं ।
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वस्त्रों से बाहर रहने से तन के ठिठुरने पर 'ठाकुर' होने की बात अपने ढंग की अनूठी कल्पना है। साथ ही बिवाई के लिए पर्वतों के दरों (खोगाला ) की उपमा और रेतीले टीलों पर जमे हुए धवल हिम की चांदी के बर्गों से तुलना, मंदधूप और शीतकाल जल्दी छिपते हुए सूर्य को जाड़े से डरा हुआ
तुलसी प्रज्ञा-३
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