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________________ साहित्य क्षेत्र में उसी के माध्यम से आपका पदन्यास होता है। दीक्षित होने के दो वर्ष बाद जबकि आपकी अवस्था लगभग १३ वर्ष की थी, कवित्त और छंद बनाने प्रारम्भ कर दिये थे। धीरे-धीरे यह क्रम आगे बढ़ता गया और आज विपुल मात्रा में अनेक विधाओं में आपका साहित्य हमारे सामने विद्यमान है। वर्गीकरण के रूप में उसे सात भागों में बांटा जा सकता है: १. जीवन चरित्र २. आख्यान ३. शिक्षा ४. यात्रा ५. श्रद्धांजलि ६. पत्र ७. स्फुट १. जीवन चरित्र इस वर्ग में पांच ग्रथों को लिया जा सकता है। (१) कालूयशोविलास-आचार्य श्री की काव्यकृतियों में ग्रथान की दृष्टि से सबसे वृहत्काय और अपने ढंग का एक उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य है। इसके चरित नायक हैं-स्वनामधन्य तेरापंथ के अष्टमाचार्य स्वर्गीय श्री कालूगणि । उनका जीवन विविध विशेषताओं का संगम था। आचार्य श्री ने उन विरल विशेषताओं को अत्यन्त निकटता और सूक्ष्मता से आत्मसात् किया है । इसलिए अपनी काव्यमयी भाषा में जन-जन तक पहुँचाने में सफल सिद्ध हुए हैं । काव्य की भाषा संस्कृतनिष्ठ राजस्थानी है पर कहीं-कहीं प्रसंगानुसार गुजराती, हिन्दी, उर्दू, प्राकृत और अंग्रेजी भाषा के शब्दों का भी छुटपुट प्रयोग हुआ है जो कि आपके समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचायक है । काव्य की शैली और रचना-पद्धति एक विशेष प्रकार का ओज और प्रवाह लिये चलती है जो कि पाठकों को अपने साथ बहा ले जाती है । रूपक, उपमा, अनुप्रास आदि अलंकारों के पग-पग पर दर्शन होते हैं । वक्रोक्ति, यमक, श्लेष आदि के भी अनेक उदाहरण यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। कहीं-कहीं ऋतु-वर्णन और प्रकृति-चित्रण इतना स्वाभाविक हुआ है कि देखते ही बनता है - उदाहरण के रूप में उपस्थित है ग्रीष्म ऋतु का हृदय-दाहक वर्णन"ज्येष्ठ महीनों हो ऋतु गरमी नो मध्यम सीनों हो हिवं हठ भीनो। लुहर झाला हो अति विकराला, बन्हि ज्वाला हो जिम चौफालां । भू थई भट्टी हो तरवी ताप, रेणु कठ्ठी हो तनु संताप । अजिन रू अठ्ठी हो मठ्ठी व्याप, अति दुरघट्टी हो धट्टी माप । स्वेद निझरणां हो रू- रूझारै, चीवर कर ना हो लुह - लुह हार । अंगै उघड़े हो फुणसी फोड़ा, भू पै उघड़े हो जिम भूफोड़ा ।"3 ग्रीष्म ऋतु अपनी चरम सीमा पर है, विकराल लूयें यों चल रही हैं मानो उछलती हुई अग्नि की ज्वाला हो। सूर्य के प्रचण्ड ताप से भूमि भड़भूजे की भट्ठी सी बन गई है । आंधियों के कारण शरीर पर पड़ने वाली मिट्टी चमड़ी और अस्थि आदि प्रत्येक अंग पर ___ अपना अधिकार जमा कर आतंकित कर रही है। पसीना यू चू रहा है मानो कोई झरना बह रहा हो, उसे रूमाल से तुलसी प्रज्ञा-३ १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524503
Book TitleTulsi Prajna 1975 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Gelada
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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