________________
एहिमहंरघुपति नाम उदारा, अति पावन पुरसंस्कृति सारा । मंगल भवन अमंगलहारी, उमा सहित, जेहि जपत मुरारी ॥
स्वयंभू को राम-कथा जैन-परंपरा से प्राप्त हुई । भगवान्-महावीर स्वामी, गौतम गवधर, सुधर्मा, प्रभव, कीर्तिधर
और आचार्य रविषेण से यह धारा उन्हें मिली। तुलसी को स्वयंभू शिव से प्राप्त हुई। स्वयंभू रविषेण को अपना मुखिया मानते थेवद्धमाण-मुह-कुहर विणिग्गय । राम-कहा-णइएह कमागय ।। पच्छर इन्दमूइ-आयरिएं । पुणु धम्मेण गुणालंकिए ॥ पुणु पहवे संसाराराए । कित्तिहरेण अणुत्तर वाए। पुणु रविषेणाचरिय पसाए । बुहिए अवगाहिय के इराए ।
स्वयंभू ने प्रथम तीर्थ कर ऋषभदेव की वंदना से अपना काव्यारम्भ किया हैणमइ णव-कमल-कोमल-मणहर-वर-वहल
कांति-सोहिल्लं। उसहस्स पाय कमलं स-सुरासुर-वंदियं
सिरसा ॥ तुलसी पार्वती-शंकर के मंगलाचरण से 'मानस' का श्रीगणेश करते हैंभवानीशंकरौ वन्दे ऋद्धाविश्वास रुपिणी । याम्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः
स्थमीश्वरम् ॥ 'पउम चरिउ' तथा 'मानस' कतिपय कथा-सूत्र भी अवलोकनीय हैं। स्वयंभू राम वनवास में सीता के वियोग में गज से मृग-नैनी सीता की बात पूछते हैं -
हे कुजर कामिरिण-गह-गमण । कहेंकहिमि दिह जइ मिगणयण ॥
_ 'मानस' के राम भी इसी प्रकार पूछते-फिरते-दिखाई देते हैंहे खग मृग हे मधुकर श्रेनी । तुम देखी सीता मृग नैनी ।।
स्वयंभू के राम नील कमलों को सीता के नयन समझते हैं तो कहीं अशोक को सीता की बांह मान बैठते हैंणिय-पाडिर वेण वेयारियउ । जाणइ सीयएं हककारियउ । कत्थइ दिट्ठई इन्दीवरई । जणइ धण-णयणइं दीहर इं ।। कत्थइ असोय-तरु हल्लियउ। जाणाइ धण-वाहा-डोल्लियउ ।। वण सयलु गवेसवि सयल महि । पल्लटु पडीवउ दासरहि ।।
तुलसी के राम की भी यही स्थिति है । उनको ऐसा प्रतीत होता है कि मानों सीता के अंग प्रत्यंगों से ईर्ष्या करने वाले खंजन, मृग, कुद, कमल आदि इस समय प्रमुदित हैंखंजन सुक कपोत मृग मीना । मधुप निकर कोकिला प्रवीना । कुद कली दाडिम दामिनी । कमल सरद ससि अहिभामिनी ।। बरुन पास मनोज धनुहंसा । गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ।। श्रीफल कनक कदलि हरसाहीं। नेकुन संक सकुच मनमाहीं ।। सुनु जानकी तोहि बिनु आजु । हरषे सकल पाइ जनु राजू ।।
स्वयंभू ने सीता के असहाय करुणक्रन्दन को मार्मिक रूप में प्रस्तुत किया हैहउंपावेण एण अवगण्णेवि ।
तुलसी प्रज्ञा-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org