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दोनों महाकवियों की ख्याति अपने युग में फैल चुकी थी। स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने अपने पिता को स्वयंभूदेव, कविराज, कविराज चक्रर्वातन, विद्वान्, छान्दस, चूड़ामणि आदि उपाधियों से अलंकृत किया था जिससे स्वयंभू की अपने समय में ख्याति, यश तथा सम्मान की सूचना भी हमें मिलती है। तुलसी भी अपने समय में वाल्मीकि के अवतार घोषित हो चुके थे। साहित्य-सूत्र :
__ तुलसी ने द्वादश काव्य-ग्रन्थ लिखे थे । स्वयंभू-रचित तीन ग्रन्थ 'पउम चरिउ', 'रिट्ठणेमिचरिउ' एव स्वयंभू. छन्द' बताये जाते हैं। इनके अतिरिक्त स्वयंभू को 'सिरि पंचमी' और 'सुद्धय चरिय' की रचना का भी श्रेय दिया जाता है। स्वयंभू ने सभवतः किसी व्याकरण-ग्रन्थ की भी सृष्टि की थी। जैन विद्वान् स्वयंभू को अलंकार तथा कोशग्रन्थ के रचयिता भी मानते हैं। स्वयंभू ने शायद कुल सात ग्रन्थ लिखे थे । सप्तम ग्रन्थ का नाम 'सिरि-पंचमी-कहा' था । उनकी 'सप्त जिव्हा' वास्तव में उनके सात ग्रन्थ थे-- गजंती ताम्ब कइमत्त कुजरा लक्ख.
लक्खण-बिहीगा। जासत्त-दीह-जीहं सयंभु-सीहंण पेच्छिति ।।
'स्वयं भू-छन्द' का प्रकाशन सर्व प्रथम हुआ। इसमें आठ अध्याय हैं जिनमें प्रथम तीन अध्यायों में प्राकृत छंदों तथा परवर्ती पांच अध्यायों में अपभ्रश छंदों का वर्णन है । स्वयंभू ने अपने इस ग्रन्थ से राजशेखर, हेमचन्द्र आदि को प्रभावित किया था।
स्वयंभू को अमर-शाश्वत बनाने
वाली रचनाएं 'पउम चरिउ' तथा 'रिट्ठणेमिचरिउ' हैं। जैन-परिपाटी में 'पद्म' श्रीराम का परिचायक है। स्वयंभू जैन रामकथा गायक विमलसूरि की परम्परा के कवि थे। उन्होंने इस कथा को अनेक अभिधानों से उद्भासिक किया था यथा पोमचरिय, रामायण पुराण, रामायण, रामएबचरिय, रामचरिय, रामायणकाव, राघवचरिय, रामकहा इत्यादि । 'पउम चरिउ' पांच काण्डों में विभाजित है जबकि 'रामचरित मानस' सप्त सोपानों में। 'पउम चरिउ' में कुल मिलाकर ६० संधियां हैं-विद्याधर काण्ड-२०; अयोध्या काण्ड-२२; सुन्दर काण्ड-१४; युद्ध काण्ड-२१ तथा उत्तर काण्ड १३ संधियां । समूचे ग्रन्थ में कुल १२६६ कडवक हैं। 'रिट्ठणेभेचरिउ' स्वयंभू का सबसे बड़ा ग्रन्थ है । इसमें १८ हजार श्लोक हैं। इसमें ३ काण्ड और १२० संधियां हैं। मान्यता-सूत्र :
स्वयंभू और तुलसी रामकथा के सूत्र से सम्बद्ध थे। दोनों में लगभग ७५० वर्षों का अंतर था। दोनों के काव्य-सिद्धान्तों में अंतर दिखाई पड़ता है। स्वयंभू ने शाश्वत कीर्ति और अभिव्यंजना को अपना लक्ष्य स्वीकार किया था-- पुणु अप्पाणउ पायडमि रामायण कावें । हिम्मल पुण्य पवित्त - क ह - कित्तणु
आढप्पइ । जेण समाणि ज्जतेणथिर कित्तणु
विपढ़प्पइ ।। तुलसी के काव्योदेश्य में राम के स्तवन के साथ आत्म कल्याण तथा परहित निहित था
तुलसी प्रज्ञा-३
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