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________________ को दक्षिण में, उपाध्याय (श्रुतगी) को पश्चिम में, साधु को उत्तर में और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को पूर्व में क्रमशः भोजपत्र, लकड़ी के पटिये, वस्त्र, शिलातल, रेत और पृथ्वी पर तथा आकाश और हृदय में (यथासंभव पुष्प, फल, पाषाण आदि रखकर उनमें ) स्थापित करना चाहिए ।" यहाँ " अत्र अवतर अवतर, " " अत्र तिष्ठ तिष्ठ" कहकर जिनेन्द्रदेव को सिद्धशिला से बुलाकर पूजास्थल के ठोने पर स्थापित करने के लिए नहीं कहा गया है, अपितु भूर्जपत्र आदि में अक्षतादि रखकर उनमें जिनेन्द्रदेव की कल्पना करने के लिए ( उन्हें जिनेन्द्रदेव मान लेने के लिए) कहा गया है। इसे ही यहाँ स्थापना नाम दिया गया है (स्थाप्यः) । यही अतदाकार स्थापना है। इस तरह सोमदेवसूरि-कथित संकल्पितजिनपूजाविधिवाली स्थापना वर्तमान में प्रचलित " अत्र अवतर अवतर, अत्र तिष्ठ तिष्ठ" - वाली स्थापना से बिलकुल भिन्न है। तथा इसमें उपर्युक्त प्रकार से संकल्प या स्थापना कर के पंचपरमेष्ठी और रत्नत्रय की अष्ट द्रव्य से पूजा करने और उसके बाद स्तवन करने के लिए कहा गया है जिनसिद्धसूरिदेशकसाधुश्रद्धानबोधवृत्तानाम् । कृत्वाष्टतयीमिष्टिं विदधामि ततः स्तवं युक्त्या ॥ ४५९ ॥ (उपासकाध्ययन / श्रावकाचारसंग्रह / भाग १ / पृ० १७४) अनुवाद - " जिन (अरहन्त), सिद्ध, सूरि (आचार्य), देशक (उपाध्याय), साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की अष्टतयी (अष्टद्रव्यात्मक) इष्टि (पूजा) करके युक्तिपूर्वक स्तवन करता हूँ ।" चूँकि इस संकल्पितजिन - पूजाविधि में आवाहन नहीं किया जाता, इसलिए इसमें विसर्जन भी नहीं बतलाया गया है । सन्निधीकरण का भी इसमें कथन नही हैं। जिनप्रतिमा पूजाविधि में सिद्धाशिलागत जिन का आवाहनादि नहीं सोमदेवसूरि ने उपासकाध्ययन में जिनप्रतिमा - पूजाविधि ( तदाकारस्थापनावाली पूजाविधि) के छह अंग या उपचार बतलाये हैं : प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन ( सन्निधीकरण), पूजा और पूजाफल । यथाप्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सन्निधापनम् । पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम् ॥ ४९५ ॥ (श्रावकाचारसंग्रह / भाग १ / पृ० १८० ) यहाँ द्रष्टव्य है कि सोमदेव सूरि ने पूजा के अंगों में आवाहन और विसर्जन आवश्यक नहीं बतलाये और प्रस्तावनादि की विधियाँ इस प्रकार बतलायी हैं जिनप्रतिमा के अभिषेक की तैयारी करना प्रस्तावना है। ( उपासकाध्ययन / श्लोक ४९६-४९८ ) । जिस वेदी पर जिनप्रतिमा को स्थापित कर अभिषेक करना है, उस वेदी को शुद्ध करके वेदी के चारों कोनों में जल से भरे कलश स्थापित करना पुराकर्म है । ( वही / श्लोक ४९९-५०० ) । उन कलशों के बीच में रखे हुए स्नानपीठ पर जिनबिम्ब की स्थापना करना स्थापना है, जैसा कि उपासकाध्ययन के निम्न श्लोक से स्पष्ट होता है तीर्थोदकैर्मणिसुवर्णघटोपनीतैः पीठे पवित्रवपुषि प्रविकल्पितार्घे । लक्ष्मीश्रुतागमनबीजविदर्भगर्भे संस्थापयामि भुवनाधिपतिं जिनेन्द्रम् ॥ ५०२ ॥ Jain Education International अनुवाद - "जो पीठ मणिजटित सुवर्णघटों में लाये गये पवित्र जल से पवित्र किया गया है, जिसे अर्घ दिया गया है और जिस पर श्री ह्री बीजाक्षर लिखे गये हैं, उस पीठ पर तीनों लोकों के स्वामी जिनेन्द्रदेव (जिनप्रतिमा) की स्थापना करता हूँ। ( ऐसा संकल्प कर स्नानपीठ पर जिनबिम्ब की स्थापना करना स्थापना नामक अंग है ) । सन्निधापन की विधि पर प्रकाश डालते हुए सोमदेव सूरि कहते हैं (इति स्थापना ) For Private & Personal Use Only दिसम्बर 2009 जिनभाषित 3 www.jainelibrary.org
SR No.524346
Book TitleJinabhashita 2009 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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