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________________ सोऽयं जिनः सुरगिरिर्ननुपीठमेतदेतानि दुग्धजलधेः सलिलानि साक्षात् । इन्द्रस्त्वहं तव सवप्रतिकर्मयोगात्पूर्णा ततः कथमिर्य न महोत्सवश्रीः ॥ ५०३ ॥ (इति सान्निधापनम् ) अनुवाद - "यह जिनबिम्ब ही साक्षात् जिनेन्द्रदेव है, यह स्नानपीठ साक्षात् सुमेरुपर्वत है, घटों में भरा हुआ जल साक्षात् क्षीरसागर का जल है और आपके अभिषेक के लिए इन्द्र का रूप धारण करनेवाला मैं साक्षात् इन्द्र हूँ, तब अभिषेक महोत्सव की शोभा पूर्ण क्यों नहीं होगी? ऐसा संकल्प करना सन्निधापन है । " जिनप्रतिमा की आरती उतारना, जलादि से अभिषेक करना अष्टद्रव्य से अर्चा करना, स्तोत्र पढ़ना आदि पूजा नामक अंग है। ( वही / श्लोक ५११-५२६) । तथा " है भगवन् । जब तक आपका परम-पदरूप स्थान मुझे प्राप्त न हो, तब तक सदा आपके चरणों में मेरी भक्ति रहे, सब प्राणियों के साथ मेरा मैत्रीभाव रहे, मेरी ऐश्वर्यरत मति सबका आतिथ्यसत्कार करने में संलग्न हो, मेरी बुद्धि अध्यात्मतत्त्व में लीन रहे, ज्ञानीजनों के प्रति मेरा स्नेहभाव रहे और मेरी चित्तवृत्ति सदा परोपकार में लगी रहे--- इत्यादि कामना करना पूजाफल कहलाता है।" ( वही / श्लोक ५२८-५३० ) । इन उपचारों में आवाहन और विसर्जन मामक उपचार तो हैं ही नहीं और स्थापना तथा सन्निधापन के उपचार भी असंगत नहीं हैं, क्योंकि इनमें जिनेन्द्रदेव से सिद्धशिला से उतरकर पूजक के सामने रखे हुए ठोने पर आकर बैठने के लिए नहीं कहा जाता है, जिसका कार्यरूप में परिणत होना सर्वथा असंभव होने से जैनसिद्धान्त के विरुद्ध है। मूलपीठ पर विराजमान जिनप्रतिमा का वहाँ से उठाकर स्नानपीठ पर स्थापन और पूजक का स्वयं को इन्द्र, स्नानपीठ को सुमेरु आदि मानने रूप सन्निधापन भी संभव हैं । अतः सोमदेवसूरि द्वारा कथित स्थापना और सन्निधीकरण के उपचार जैनसिद्धान्तानुकूल हैं। यदि मूलपीठ पर विराजमान जिनबिम्ब को स्नानपीठ तक लाने की क्रिया आवाहन मान ली जाय और अभिषेक पूजन के बाद उसे पुनः मूलपीठ पर विराजमान कर देने को विसर्जन माना जाय, तो ये उपचार भी असंभव न होने से जैनसिद्धान्त के अनुकूल होंगे। पं० वामदेव (१५वीं शती ई०) ने भी संस्कृत भावसग्रह में जिनप्रतिमा-पूजाविधि के अन्तर्गत स्थापना आदि की ये ही जैन सिद्धान्तानुकूल विधियाँ प्ररूपित की है। वे लिखते हैं स्नानपीठं दृढं स्थाप्य श्रीबीजं च विलिख्यात्र परितः स्नानपीठस्य पूरितांस्तीर्थसत्तोयैः जिनेश्वरं समभ्यर्च्य कृत्वाह्वानविधिं सम्यक् कुर्यात्संस्थापनं तत्र नीराजनैश्च निर्वृत्य इन्द्राद्यष्टदिशापालान् रक्षोवरुणयोर्मध्ये क्रमेणैतान्मुदं नयेत् । स्वस्वमन्त्रैर्यथादिशम् ॥ ४२ ॥ न्यस्याह्ननादिकं कृत्वा बलिप्रदानतः सर्वान् ततः कुम्भं समुद्धार्य तोयचोचेक्षुसद्रसैः । सद्वृतैश्च ततो दुग्धैर्दधिभिः स्नापयेज्जिनम्॥ ४३॥ 4 दिसम्बर 2009 जिनभाषित Jain Education International प्रक्षाल्य शुद्धवारिणा । गन्धाद्यैस्तत्प्रपूजयेत् ॥ ३७ ॥ मुखार्पितसपल्लवान् । कलशांश्चतुरो न्यसेत् ॥ ३८ ॥ मूलपीठोपरिस्थितम् । प्रापयेत्स्नानपीठिकाम् ॥ ३९ ॥ सन्निधानविधानकम् । जलगन्धादिभिर्यजेत् ॥ ४० ॥ दिशाष्टासु निशापतिम् । शेषमीशानशक्रयोः ॥ ४१ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524346
Book TitleJinabhashita 2009 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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