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उन तीनों का मिश्रण होने के उपरांत, घोल बनने | वीतरागविज्ञान कहा है। अथवा वीतरागचारित्र कहा है। के बाद, जब हमें प्यास लगी हो, तब पियेंगे तो स्वाद | उसके साथ तीनों हैं। कहीं वीतरागविज्ञान के द्वारा मुक्ति अलग आयेगा। उसमें मीठे का स्वाद, सुगंधी की गंध | होना कहा है, तो उसमें बाधा नहीं है। वीतराग संवेदन
और जल का भी स्वाद आयेगा। इसी प्रकार व्यवहार स्थिर क्यों किया जा रहा है? क्या संवेदन के साथ या रत्नत्रय से ही निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति होगी, यह | संवदेन के द्वारा मुक्ति हो सकती है? ऐसा प्रश्न उठाया अकाट्य नियम है। जो व्यक्ति आज चतुर्थगुणस्थान में | गया है। संवेदन में और वीतराग संवेदन में क्या अन्तर केवल अपने सम्यग्दर्शन को लेकर के, 'और किसी | है? आचार्यों ने बहुत अच्छे से उत्तर दिया है- 'सर्वेषां को सम्यग्दर्शन नहीं है, ऐसा सोच करके चल रहा है, संसारिजीवानां संवेदनं त वर्तते एव', सभी संसारी जीवों उसको यह भी सोचना चाहिए कि दूसरों को भी आगमज्ञान | के पास स्वसंवेदन तो है ही। आप भी कहते हैं 'मैं है और वे भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। हूँ'। यह संवेदन तो सबके पास है।
यह अहंकार ही प्रक्रिया चालू हो गयी है। यह अहं-प्रत्यय स्वसंवेदन का ही प्रतीक है। फिर गलत है। जिसके पास सम्यग्दर्शन है, उसे निश्चय | आप वीतराग क्यों लगाते हो? संवेदन ही लगाओ। हम सम्यग्दर्शन का स्वाद आना चाहिए, ऐसी धारणा गलत | यह बताना चाह रहे हैं कि मात्र स्वसंवेदन नहीं होता। है। क्योंकि यह क्रम नहीं है। भेद रत्नत्रय से अभेद | स्वसंवेदन के साथ वीतराग होना भी अनिवार्य है। तो रत्नत्रय की ओर जाते हैं, न कि अकेले व्यवहार | अपने आप ही सारे सांसारिक अध्यवसान हट जायेंगे। सम्यग्दर्शन से निश्चय सम्यग्दर्शन की ओर जाते हैं। तो एक मात्र वीतराग स्वसंवेदन सामने आ जायेगा। वह हम पानक का स्वाद लेना चाहेंगे तो तीनों के घोल के | कौन हो सकता है? क्या बीसपंथी हो सकता है? अरे! बाद ही लेंगे, अन्यथा नहीं। हाँ, पानी का स्वाद पृथक् बावले तुम पंथ की बात कर रहे हो। यहाँ पर आगम ले सकते हैं, किन्तु पानक का नहीं। पानक का स्वाद | के आधार पर, देव के दर्शन करके, जिनबिम्ब को देख लेना है तो तीनों को घोलना पडेगा, तीनों का अभाव | करके उनकी अर्चा के आधार पर समर्पित होकर के. होगा। हाथ डालकर देखेंगे तो नहीं मिलेंगे। न शक्कर जो व्यक्ति उसमें ढलना चाह रहा है, वह न तेरहपंथ हाथ आयेगी, न दूध आयेगा, न जल आयेगा, तीनों का | की ओर देखेगा, न बीसपंथ की ओर देखेगा और न समुदाय ही आयेगा। इसप्रकार की अवस्था जब आत्मा | किसी अन्य पंथ की ओर देखेगा। ये जितने भी पंथ की होती है, तो उसका नाम ध्यान है।
हैं वे सारे के सारे पूजनपद्धति को लेकर ही खड़े हैं पहले ज्ञान प्राप्त करो, बाद में ध्यान प्राप्त करो। | और एक दूसरे से झगड़ रहे हैं। न गुरु की बात सुन अध्यात्मग्रन्थों में मुख्य रूप से ध्यान की ही बात कही | रहे हैं और न उन्हें आगम से मतलब है, न देव से गयी है। उसमें भी उन्होंने कहा है कि जो भेदविज्ञान | मतलब है। 'यह घर का है, इसकी कोई आवश्यकता को प्राप्त है, वही व्यक्ति ध्यान में उतर सकता है, बहुत नहीं, यह व्यक्ति ठीक नहीं, यह पंथ ठीक नहीं। यह जल्दी और अच्छे से सफल हो सकता है। इसलिए उन्होंने | क्या मामला है?' इस तरह आपस में लड़ते हैं। अभी कहा अब देव-शास्त्र-गुरु के आलम्बन की आवश्यकता | तक यह भी मालूम नहीं कि जैनागम क्या है? जैनत्व नहीं है। अब छह द्रव्य, नव पदार्थ, सात तत्त्व, पञ्चास्तिकाय | क्या है? सच्चे देव कौन हैं? उनको इससे कोई मतलब की कोई आवश्यकता नहीं है।
नहीं। साक्षात् भगवान् भी आ जायें, तो भी उनकी पहचान अब समझने की बात है। इस समय तो आपको | नहीं करते हैं। यहाँ पर यह कहा जा रहा है कि परमार्थभूत केवल भेदविज्ञान को स्थिर करना है। स्थिर करने के देव को आधार बनाओ और पूजा, स्थापना करो। इसको लिए उन्होंने जो साधन बताया, उसको आप सम्यग्दर्शन | तो समझा नहीं और पंथवाद में लग गये, किससे कहें? की उत्पत्ति का साधन मत बनाओ, वह ध्यान का साधन
'श्रुताराधना ' २००७ से साभार है। उस ध्यान का नाम उन्होंने निश्चयरत्नत्रय कहा है, ।
10 दिसम्बर 2009 जिनभाषित
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