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________________ पूजनविधि जिनभाषित के इस अंक के सम्पादकीय में प्रस्तुत तथ्यों एवं प्रमाणों की पुष्टि सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के नीचे उद्धृत लेख से भी होती है। उपलब्ध साहित्य में सोमदेव उपासकाध्ययन से पूर्व अन्य किसी ग्रन्थ में भी इस तरह विस्तार से पूजन की विधि मेरे देखने में नहीं आयी है। उत्तरकाल के ग्रन्थकारों में वसुनन्दि ने अपने श्रावकाचार में प्रतिष्ठा की विधि भी बतलायी है, किन्तु पूजन की विधि इतने विस्तार से नहीं बतलायी। पं० आशाधर ने भी दो एक पद्यों के द्वारा संक्षेप में पूजा का क्रम बतलाया है। मेधावी ने भी बसुनन्दि के अनुसार लिखा है। सोमदेव सूरि ने पूजकों के दो भेद किये हैंएक पुष्पादि में पूज्य की स्थापना करके पूजन करनेवाले और दूसरे, प्रतिमा का अवलम्बन लेकर पूजन करनेवाले । उन्होंने पूजक को फल, पत्र और पाषाण आदि की तरह अन्य धर्म की मूर्ति में स्थापना करने का निषेध किया है। तथा दोनों प्रकार के पूजकों के लिए अलग-अलग विधि बतलायी है । वसुनन्दि ने सोमदेव के द्वारा विहित उक्त दोनों प्रकारों को सद्भावस्थापना तथा असद्भावस्थापना नाम दिया है। साकार वस्तु (प्रतिमा) में अरहन्त आदि के गुणों का आरोपण करना सद्भावस्थापना है और अक्षत, वराटक ( कमलगट्टा) वगैरह में अपनी बुद्धि से 'यह अमुक देव है' ऐसा संकल्प करना असद्भावस्थापना है। वसुनन्दि ने इस काल में असद्भाव स्थापना का निषेध किया है। आशाधर ने निषेध नहीं किया। सम्भवतया प्रतिमा के सामने न होते हुए पुष्पादि में अर्हन्त की स्थापना करके पूजन करने का ही निषेध वसुनन्दिने किया है। इससे भ्रम होने की सम्भावना है। आजकल जिनप्रतिमा के अभिमुख ही पुष्पक्षेपण करके स्थापना की जाती है। वसुनन्दि ने इसे नामपूजा कहा है। उन्होंने पूजा के छह भेद किये हैं- नामपूजा, स्थापनापूजा, द्रव्यपूजा, भावपूजा, क्षेत्रपूजा, और कालपूजा। अरहन्त आदिका नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में पुष्पक्षेपण करना नामपूजा है। आगे अन्य पूजाओं के लक्षण इस प्रकार दिये हैं, जिनप्रतिमा की स्थापना करके पूजन करना स्थापनापूजा है। जल गन्ध आदि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की पूजा करना द्रव्यपूजा है। जिन भगवानू के पंचकल्याणकों की भूमि में पूजा Jain Education International सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री करना क्षेत्रपूजा है और भक्तिपूर्वक जिन भगवान् के गुणों का कीर्तन करके, जो त्रिकाल वन्दना की जाती है वह भावपूजा है, नमस्कार मन्त्र का जाप और ध्यान भी भावपूजा है। अमितगति ने अपने श्रावकाचार में पूर्वाचार्यों के अनुसार वचन और शरीर की क्रिया को रोकने का नाम द्रव्यपूजा और मन को रोककर जिनभक्ति में लगाने का नाम भावपूजा कहा है। उनके अपने मत से गन्ध, पुष्प नैवेद्य, दीप, धूप और अक्षत से पूजा करने का नाम द्रव्यपूजा और जिनेन्द्र के गुणों का चिन्तन करने का नाम भावपूजा कहा है। सोमदेव ने पूजा के ये भेद नहीं बतलाये। ऊपर जिन दो प्रकार के पूजकों का उल्लेख किया है, उनके लिए सोमदेव ने पूजन की दो विभिन्न विधियों का वर्णन किया है। जो प्रतिमा में स्थापना नहीं करते उनके लिए अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचरित्र की स्थापना करके प्रत्येक की अष्ट द्रव्य से पूजा करना बतलाया है। उसके बाद क्रम से दर्शनभक्ति, ज्ञानभक्ति, चारित्रभक्ति, अहंभक्ति, सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, शान्तिभक्ति और आचार्यभक्ति करना बतलाया है पूजा का यह प्रकार वर्तमान में प्रचलित नहीं है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि सोमदेव ने पूजन से पूर्व जो स्थापन और सन्निधापन क्रियाएँ बतलायी हैं, वे आज के प्रचलित आवाहन, स्थापन और सन्निधीकरण से भिन्न हैं। आज तो प्रत्येक पूजन के प्रारम्भ में प्रत्येक पूज्य का आह्वान आदि किया जाता है। आइए- आइए, यहाँ विराजमान हूजिए, मेरे निकट हूजिए। किन्तु सोमदेवद्वारा प्रदर्शित विधि में आह्वान तो है ही नहीं, और अभिषेक के लिए जो जिनबिम्ब को सिंहासन पर विराजमान किया जाता है वही स्थापना है। अभिषेक के पश्चात् ही जलादि पूजन प्रारम्भ हो जाता है, उसके प्रारम्भ में पुनः कोई आह्नान आदि नहीं किया जाता। इसी से सोमदेव की विधि में पूजन के अन्त में विसर्जन भी नहीं है, क्योंकि • दिसम्बर 2009 जिनभाषित 11 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524346
Book TitleJinabhashita 2009 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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