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________________ पंचम अंश अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग आचार्य श्री विद्यासागर जी श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह, म०प्र०) में मई २००७ में आयोजित श्रुत आराधना शिविर में १५ मई २००७ के प्रथम सत्र में विद्वानों की शंकाओं के समाधानार्थ आचार्यश्री द्वारा किये गये प्रवचन का पंचम अंश प्रस्तुत है। भेददृष्टि और अभेददृष्टि में रत्नत्रय सम्यग्दर्शन या वीतराग सम्यग्दर्शन कहा है, लेकिन उन्होंने कल कहा गया था कि एक भेदपरक दृष्टि है, | यह नहीं कहा कि इसके साथ शुद्धोपयोग होता है। वहाँ जिसे आगम की दृष्टि या व्यवहारदृष्टि भी कहते हैं। उनकी विवक्षा भिन्न है। वस्तुतः शुद्धोपयोग की भूमिका एक अध्यात्मदृष्टि है, जिसे अभेदपरक दृष्टि भी कहते | अभेद रत्नत्रय के साथ ही बनती है, ऐसा आगम का हैं। इन दोनों में क्या अन्तर है? यह अध्ययन करने | कथन है। इसलिए उस भिन्न-विवक्षावाली बात को सब से ज्ञात होता है। फिर भी इसका अध्ययन कैसे करना लोगों के सामने रख करके भ्रम फैलाने का प्रयास मत चाहिए, इसमें हम लोगों को अवश्य ही पुरुषार्थ करना | करो। दूसरी बात यह है कि गुणस्थान को प्राप्त करने चाहिए। दोनों में रत्नत्रय का संबंध है। भेददृष्टि में भी की प्रक्रिया होती है। जीव किसी न किसी गुणस्थान रत्नत्रय है और अभेद दृष्टि में भी रत्नत्रय है। कुन्दकुन्द में रहते हैं। अविरत चौथे में रहता है, लेकिन ज्यों ही स्वामी के साहित्य में अभेद की मुख्यता से कथन है। मुनि-अवस्था होती है, उसके तो सबसे पहले शुद्धोपयोग अभेद वृत्ति ध्यानपरक होती है। ध्यान हमें करना है, | होता है, आगम का ऐसा ज्ञान हुए बिना, उसका अनुभव लेकिन किसका ध्यान करना है, यह जानकारी ध्यान नहीं होता, अथवा यूँ कहना चाहिए, स्वयं प्रयोग करके के पहले अवश्य होनी चाहिए। पहले ध्यान की सामग्री | देख लो। का ज्ञान होना चाहिए, फिर बाद में ध्यान करना चाहिए। __ आचार्यों ने प्रथम गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान तब ध्यान लगता है। डाइरेक्ट हम ध्यान लगाना चाहें, | प्राप्त करने की प्रक्रिया बताई है। चतर्थ गणस्थान से तो ध्यान में विसंवाद ही होगा। इसलिए जिन्होंने शरीरातीत | भी सप्तम गुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं। पञ्चम गुणस्थान अवस्था को प्राप्त कर लिया है, उनको ही हम सर्वप्रथम | से भी सप्तम गुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं। छठे गुणस्थान ध्यान का विषय बनायें, जिसको व्यवहारसम्यग्दर्शन कहते | को भी प्राप्त कर सकते हैं लेकिन छठे गुणस्थान में हैं। आने का रास्ता सप्तम से होकर है। यह सिद्धांत ध्रुव कल एक बात कही थी कि आगमदृष्टि में निमित्त | है। इसमें किसी भी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए। को लेकर ही कथन होता है और अध्यात्मदृष्टि में निमित्त क्योंकि यही 'लॉ' है, यही आज्ञा है। अब भेददृष्टि में को गौण करके, सिर्फ आत्मा को विषय बना करके | अकेला सम्यग्दर्शन, ज्ञान भी रह सकता है और भेददृष्टि बात होती है। जो व्यक्ति केवल आत्मा को ही विषय के द्वारा वीतराग चारित्र भी हो सकता है। लेकिन बना करके कुछ प्राप्त करना चाहता है, उसे निश्चय | अभेददष्टि में अकेला कोई नहीं होगा। क्योंकि तीन सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होगी, वह व्यवहारसम्यग्दर्शन से | के साथ ही वह अभेद को प्राप्त होगा, यह नियम ऊपर उठ जाएगा, क्योंकि निश्चयसम्यग्दर्शन की प्राप्ति | है। कल पानक का एक उदाहरण दिया था। वस्तुतः व्यवहार सम्यग्दर्शन के द्वारा ही होती है, डाइरेक्ट नहीं | शास्त्रीय उदाहरण है, अपनी तरफ से नहीं दिया था। हुआ करती है, यह निश्चित बात है। आप कोई भी | इस उदाहरण से हम और अच्छी तरह से समझ सकते ग्रन्थ पढ़ लीजिये, निश्चयसम्यग्दर्शन डाइरेक्ट प्राप्त नहीं हैं। पानक में तीन वस्तुओं की समष्टि होती है। पेय होता। यहाँ पर एक प्रश्न उठ सकता है कि निश्चय | कहने से वे तीनों चीजें आ जाती हैं। अलग-अलग पियोगे, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हम डाइरेक्ट कर सकते हैं। जैसे | तो पानक नाम नहीं होगा और पानक का स्वाद नहीं अकलंकदेव ने यद्यपि क्षायिक सम्यग्दर्शन को निश्चय | आयेगा। -दिसम्बर 2009 जिनभाषित १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524346
Book TitleJinabhashita 2009 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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