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________________ वलम्बिकीमासीदति तावन्न परिहरेद् व्रतपरिनिष्ठितताम्।। उपर्युक्त संक्षिप्त समीक्षा का सार यह है कि नन्दिनी ततो मा मंस्था शुद्धोपयोगाय शुभोपयोगेषु व्रतपरिकर्मसु | टीका आदि अनेकों संस्कृत टीकाओं के साथ ही वाङ्मय चर्याऽनर्थका। व्रताचरणेन पुण्यबन्धमायाति मुख्यतया | के विविध पक्ष-विषयक सर्जना के अधिकारी, त्यागगौणेन पापकर्मनिर्जराऽपि स्यात्। न च पुण्यबन्धमवरोद्धं तपस्या के धनी, ज्ञान-ध्यान में संलग्न पू० मुनिश्री का शक्नोति कोऽपि श्रमणः श्रेण्यारोहणे विशिष्टपुण्य- | उपर्युक्त भाष्य एक श्रेष्ठ रचना है, उनको कोटि-कोटि बन्धोपलम्भात्। तस्मात् व्रतमाचरितव्यं पुण्यबन्ध- साधुवाद। प० पू० सन्तशिरोमणि आचार्यश्री की परम कपा फलवाञ्छामन्तरेण।" (श्लोक ८४)। से ही शिष्यों द्वारा ऐसे महान् कार्य सिद्ध होते हैं। प्रस्तुत उपर्युक्त भाष्यांश एवं स्वोपज्ञ अनुवाद का सारांश | भाष्य के विषय में मेरी भी मंगलकामना, इन्हीं भाष्यकार यह है कि व्रतपरिकर्मा साधु सुख के कर्मों का संवर | के शब्दों में, पाठकों को इनकी श्लोकरचना का स्वाद करता है, कोई अव्रती नहीं। अव्रतों का संकल्पपूर्वक त्याग होता है, व्रतों का त्यागसंकल्पित विधान आगम | रुचिरप्रभयाभास स्यं भासयते यथा। में नहीं हैं। शुद्धोपयोगरूप परमपद की प्राप्ति होने पर | भाष्यमार्हतमेतच्च भाषितं हि मया तथा॥ पृ.२॥ व्रत स्वयमेव छूट जाते हैं। (यह भी ज्ञातव्य है कि निश्चय- प० प० मनि श्री प्रणम्यसागर जी महाराज एवं व्रत जो निश्चयरत्नत्रय के भेद हैं, कभी नहीं छूटते)। उनके प्रस्तत भाष्य को सविनय नमन। सन्त शिरोमणि श्रेणी-आरोहण में भी पुण्यबन्ध होता है, अतः पुण्यबन्ध | प० पु० आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के जगतारक हानिकारक नहीं है। व्रतों से पुण्यबन्ध होता है, तथा चरणों में कोटि कोटि नमन। संस्तुत्य समस्त संघ के पापकर्म की निर्जरा भी होती है। व्रतरूप शुभोपयोग प्रति यथेष्ट विनय, श्रेष्ठ गेट अप, कागज, मुद्रण के शुद्धोपयोग का साधक है, अतः जब तक शुद्धोपयोगरूप साथ गुरुचरणों में समर्पित श्री पदमचन्द्र शिखरचन्द्र, भूमिका पर आरोहण न हो, तब तक निष्ठापूर्वक व्रतपरिकर्म जिनेन्द्रकुमार, पी. एस. परिवार बेगमगंज भी बधाई के की चर्या अनिवार्य रूप से 'या शुभोपयोगरूप चर्या पात्र हैं, जिन्होंने प्रकाशित कराया है। प्राप्ति स्थान, धर्मोदय साधकरूप से अवश्य करणीय है। यहाँ पू० प्रणम्यसागर | साहित्य प्रकाशन, खुरई रोड सागर से ६५/- में प्राप्त महाराज ने व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग को परस्पर | है। सभी को साधवाद। साधन-साध्य रूप में, पूरक रूप में विवेचित किया है।। श्याम भवन, बजाजा बाजार देवी रोड, मैनपुरी (उ०प्र०) जीवन की वीणा एक घर में कई वर्षों से एक वीणा रखी हुई थी, जो घरवालों के लिए भारी सिरदर्द बनी हुई थी। काम की कोई गंभीर बात जब चल रही होती तो कोई शैतान बच्चा वीणा के तार छेड़ देता। घर के बड़े-बूढ़े इस अनावश्यक शोर से खीझ उठते। घर में जब भी कोई अतिथि आता तो वीणा छिपा दी जाती, ताकि उसके तारों की झंकार से बातचीत में खलल न पड़े। घरवालों ने फैसला कर लिया कि वीणा को घर से हटा देना ही बेहतर होगा। दूसरे दिन सुबह वीणा को घर के सामने के कूड़े के ढेर पर डाल दिया गया। कुछ समय बाद उन्होंने अनुभव किया कि घर अद्भुत स्वर लहरियों से गूंज रहा है। जब उन्होंने जानने की कोशिश की कि ऐसा मंत्रमुग्ध करने वाला संगीत कहाँ से आ रहा है तो उन्होंने देखा कि एक भिखारी कूड़े के ढेर पर बैठा है और वीणा बजा रहा है। यह वही वीणा थी, जो उन्होंने फेंक दी थी। उसी वीणा से संगीत के अनुपम स्वरों का वह सृजन कर रहा था। घरवालों की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने भिखारी से कहा- इस वीणा में इतना संगीत छिपा हुआ है, हमें पता ही नहीं था। तुमने हमारी आँखें खोल दी। भिखारी ने कहा- "वीणा में कुछ भी नहीं छिपा है। हम जैसी उंगलियाँ लेकर वीणा के पास जाते हैं. वही वीणा से प्रकट होने लगता है।" जीवन भी वीणा की तरह ही है। हम जैसी दृष्टि लेकर जीवन के पास जाएँगे वही जीवन से प्रकट होगा। 30 नवम्बर 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524345
Book TitleJinabhashita 2009 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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