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________________ पंचकारणसमवाय आगमोक्त नहीं-१ प्रो० (डॉ०) रतनचन्द्र जैन कुछ आधुनिक जैन विद्वानों की मान्यता है कि । कालात्मक (काल) इनमें से किसी एक रूप ही मानना प्रत्येक कार्य पाँच कारणों के सामूहिक योग से उत्पन्न | मिथ्यात्व है तथा कथंचित् सर्वरूप मानना सम्यक्त्व है। होता है- स्वभाव, नियति, कर्म पुरुषार्थ और काल। इन यह अर्थ उक्त दोहे के बाद कहे गये निम्न पद्यों पाँच कारणों के समूह को उन्होंने पंचकारणसमवाय नाम से प्रमाणित हैदिया है। वेदपाठी ब्रह्म माने निहचै स्वरूप गहै, किन्तु यह मान्यता आगमसम्मत नही हैं। आगम मीमांसक कर्म माने उदै में रहतु हैं। में कहीं भी पंचकारणसमवाय से प्रत्येक कार्य के उत्पन्न बौद्धमती बुद्ध मानै सूक्ष्म सुभाऊ साथै, होने का उल्लेख नहीं है। विद्वानों ने अपने मत की शिवमती शिवरूप काल को कहतु हैं। स्थापना में जो प्रमाण दिये हैं वे पंचकारणसमवाय के न्यायग्रन्थ के पढ़या थापै करताररूप, समर्थक नहीं हैं। उन्होंने उन्हें भूल से समर्थक मान उद्दिम उदीरि उर आनन्द लहतु हैं। लिया है या बलात् समर्थक सिद्ध करने का प्रयत्न किया पाँचों दरसनी तेतो पोषे एक-एक अंग, है। यहाँ उक्त मत के समर्थन में प्रमुख रूप से प्रस्तुत जैनी जिनपंथी सरवंगी नै गहत हैं। किये जाने वाले पं० बनारसीदासकृत नाटक समयसार + + + + + + के निम्नलिखित दोहे पर विचार किया जा रहा है- निहचै अभेद अंग उदै गुण की तरंग, पदसुभाऊ पूरब उदै निहचै उद्यम काल। उद्यम की रीति लिए उद्धता सकति है। पच्छपात मिथ्यातपथ सरवंगी शिवचाल॥ परजाय रूप को प्रवान सूक्षम सुभाऊ, पंचकारणसमवाय के समर्थक विद्वान यहाँ 'पदस काल की सी ढाल परिनाम चक्रगति है। भाऊ' से स्वभावरूप कारण, 'पूरब उदै' से कर्मरूप याही भाँति आतम दरब के अनेक अंग, कारण, 'निहचै' (निश्चय) से नियतिरूप कारण, 'उद्यम' एक माने एक को न माने सो कुमति है। से पौरुषरूप कारण तथा 'काल' से कालरूप कारण टेक डारि एक में अनेक खोजे सो सुबुद्धि, अर्थ लेते हैं और दोहे की व्याख्या इस प्रकार करते खोजी जीवे वादी मरे साची कहवती है। हैं- "स्वभाव, कर्म, नियति, पौरुष और काल, इनमें | (नाटक समयसार : सर्वविशुद्धिद्वार ४४,४५) से किसी एक से कार्य की सिद्धि मानना मिथ्यात्व है। अर्थात् अद्वैतवेदान्ती आत्मा को ब्रह्म कहते हैं और और पाँचों से कार्यसिद्धि स्वीकार करना सम्यक्त्व है।" उसे अभेदात्मक (अद्वैत) निश्चयस्वरूपवाला मानते हैं। यह व्याख्या करके वे कहते हैं कि इस दोहे में | मीमांसक पूर्व कर्म के उदय को ध्यान में रखकर आत्मा पंचकारणसमवाय से प्रत्येक कार्य के उत्पन्न होने का | को कर्मरूप स्वीकार करते हैं। बौद्धमतानुयायी उसे 'बुद्ध' प्रतिपादन किया गया है। (जैन तत्त्वमीमांसा/पं० फूलचन्द्र | शब्द से पुकारते हैं और क्षणभंगुर सूक्ष्म-स्वभाववाला सिद्ध जी शास्त्री / पृ.६५-६७/ अशोक प्रकाशन मंदिर भदैनी | करते हैं। शैव लोग आत्मा को शिव कहते हैं और उसे वाराणसी/१९६०)। कालरूप प्रतिपादित करते हैं। नैयायिक उसे कर्त्ता के आश्चर्य यह है कि विद्वानों ने यहाँ 'पदसुभाऊ'| रूप में स्थापित करते हैं और क्रिया का कर्ता कहकर आदि पदों को कारणवाचक कैसे मान लिया? वे मन में आनंदित होते हैं। इस प्रकार पाँचों दर्शनावलम्बी कारणवाचक तो हैं ही नहीं। वे तो आत्मा के विभिन्न आत्मा के एक एक अंग को ही स्वीकार करते हैं, किन्तु धर्मों के वाचक हैं। दोहे का वास्तविक अर्थ इस प्रकार | जिनमतानुयायी जैन इन सभी अंगों को ग्रहण करते हैं अर्थात् इन सभी को आत्मा का धर्म मानते हैं। आत्मा को क्षणिक (पदसुभाऊ पदार्थ का सूक्ष्म उदाहरणार्थ, दर्शन, ज्ञान आदि गुण सत्ता की दृष्टि स्वभाव), कर्मरूप (पूरब उदै-पूर्व कर्म का उदय), अभेद | से आत्मा से भिन्न नहीं हैं, अतः निश्चयदृष्टि से आत्मा (निहचै-निश्चय या परमार्थ स्वरूप), कर्ता (उद्यम) तथा ! अभेदस्वरूप है। पूर्व कर्म के उदय से उसके दर्शन, - नवम्बर 2009 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524345
Book TitleJinabhashita 2009 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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