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'मत्तिकोपनिषद' का दर्जा पा गयी है। (वही, प्रथम खण्ड,। 'काढ़ि कृपान कृपा न कहो पितु काल कराल पृ. ८७)।
बिलोकी न भाये।' अध्यात्म की यात्रा दिव्य प्रेम से माटी की वेदना कवि की वेदना से समवेत हो
| कहा जा सकता है। अरस्तू ने भी कहा था- "I Saw है। अनेक प्रक्रियाओं से होकर माटी घट का स्वरूप | her shining there is the company of the celestial.' ग्रहण करती है। पंच महाभूतों और उनकी तन्मात्राओं| दिव्य प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार ने प्रतीकों का माटी में अभिनिवेश है। 'मूकमाटी' के समग्र बोध | का सहारा लिया है। प्रतीकों के अन्तर से चरित्र-निर्माण का यही आधार है।
की प्रक्रिया पूरी हुई है। चरित्र टाइप और व्यक्ति दोनों ही और भी के माध्यम से रावण और राम का | होते हैं। निर्माण के क्रम में पात्र कभी टाइप होता है, अन्तर आचार्य विद्यासागर सम्यक् प्रकाश में करते हैं, कभी व्यक्ति। व्यक्ति ही टाइप को रेखांकित होने का
रावण था 'ही' का उपासक/राम के भीतर भी' | अक्सर देता है। टाइप व्यक्ति में समष्टि के प्रवेश का बैठा था
अवसर सृजित करता है। यही कारण है कि । राम उपास्य हुए हैं, रहेंगे | लोक से लोकोत्तर की यात्रा 'मूकमाटी' के काव्य आगे भी। 'भी' के आस-पास। (मूकमाटी : पृ. १७३) | शिल्प में प्रस्तावित है। आचार्य विद्यासागर की कृति'मूकमांटी' के प्रतिपाद्य में 'भी' प्रतिष्ठित है। जैनकाव्य समष्टि का 'मूकमाटी' समाहार है। प्रौढ़ि है। शिल्प की परम्परा में राम का महत्त्व स्वीकृत है। स्वयम्भू के दृष्टि से एक नवीन खोज है। शब्द का अमर कोश 'पउमचरिउ' में 'पउम' पद्म है। पद्म श्रीराम के लिए | है। जीवन का गीत है। चिन्तन और दर्शन कला के स्वीकृत पद है। 'बंदउँ गुरु पद पदुम परागा' में गुरु- | सुन्दर से जुड़ गये हैं। अस्तु। कला, चिन्तन, दर्शन और पद की वन्दना के व्याज से श्रीराम की ही वन्दना है। | सुन्दर के समन्वय के काव्य कालजयी बनता है। मिट्टी राम ऐसे ही शाश्वत गुरु हैं। परम गुरु हैं। दैनन्दिन जीवन अपनी कहानी कहती है। शैली आत्मकथात्मक बन गयी में प्रयुक्त होनेवाले सामान्य शब्द काव्य में नयी व्यवस्थिति | है। धर्म, समाज और संस्कृति मिट्टी के अन्तर से मुखर पा जाते हैं। कसावट आ जाती है। विद्यासागर जी ने | हो गये हैं। समाज दर्शन भी जैनदर्शन के प्रसंग में उद्भावित ऐसे शब्दों में नयी अर्थशक्ति भर दी है। अर्थ-छवि में | हो गया है। माटी व्यक्ति और समाज के लिए मंगल सुन्दर की विशिष्ट सृष्टि कर दी है। 'मूकमाटी' का घट बन गयी है। यह एक श्रेष्ठ काव्य है। आध्यात्मिक फलक व्यापक है। व्याप्ति के कारण ही सुधी समीक्षकों | जीवन का उन्मीलन है। सार्वत्रिक प्रेम की जीवन-वेदी ने शिल्प के विविध अभिधानों से इसे युक्त किया है। पर परिणय है। दर्शन के प्रभावी होने के लिए यह अनिवार्य न तो यह समीक्षा या समीक्षक की सीमा है और न | है कि वह अनुभूति के सम्पर्क में रहे। ही विवेच्य काव्य-कृति की। महाकाव्य, अध्यात्मकाव्य, 'मकमाटी' संश्लिष्टि का काव्य है, विश्लिष्टि का दर्शनकाव्य, प्रबन्धकाव्य तथा खण्डकाव्य की संज्ञाओं से | नहीं। 'गिरा अरथ जल बीचि सम' का ही क्रम-विकास इसे जोड़ा गया है। यह इसकी सीमा नहीं है। विद्यासागर | है। 'मूकमाटी-सप्तक' का यह अंश समीक्षा का मुहावरा जी एक विशेष की सृष्टि करते हैं। विशेष में अध्यात्म, | बन गया हैदर्शन और काव्य तीनों का अन्तर्भाव है। बनाने से यह. 'मन्द-मन्द मृदुता से ललित कथा के अंश, विशेष नहीं बना है, अपितु स्वयं बन गया है। 'तत्सुकृतं छन्द बद्ध जैसे बोल पढ़ो 'मूकमाटी' के। रसो वै सः' के करीब स्थापित हो गया है। इसलिए शब्द-अर्थ खुलते ही बोलते प्रसंग-रंग, कि वह स्वयम्भू है। रस रूप है। श्लेषगर्भत्व अपने सौम्य बोल अनमोल पढ़ो 'मकमाटी' के। ढंग का है। आचार्यश्री कहते हैं-'हम हैं कृपाण / हम गाथा-लोक, गाथा खोल, अमृत दिया है घोल, में कृपा न।' (मूकमाटी, पृ. ७३)
अंग-अंग तलातोल पढ़ो 'मूकमाटी' के। काल के भाल पर अंकित तुलसीदास के ये शब्द
जीवन के रूप-रंग सभी यहाँ विद्यमान, अतल की सिक्तधार हैं
रुचिकर पृष्ठ खोल पढ़ो 'मूकमाटी' के॥
- अक्टूबर 2009 जिनभाषित 29
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