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रहा है। जैसे बीजों से वृक्ष पैदा होते हैं और वृक्षों से । रूप परिणाम होते हैं। उन परिणामों से नये कर्म बँधते बीज पैदा होते हैं, यह परम्परा अनादि से चली आ | हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने रही है। न पहले बीज हआ और न पहिले वृक्ष हआ। से शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियों बीज को पहले मानें तो वह बिना वृक्ष के कहाँ से | से• जीव विषयों को ग्रहण करता है। विषयों के ग्रहण आया और वृक्ष को पहले मानें, तो वह भी बीज के | करने से इष्ट विषयों में रागभाव व अनिष्ट विषयों में बिना कैसे पैदा हुआ? इसलिये दोनों को अनादि मानने | द्वेषभाव पैदा होता है। इस प्रकार संसार चक्र में पडे से ही वस्तु व्यवस्था बन सकती है। उसी तरह कर्मों | हुए जीव के भावों से कर्मबन्ध और कर्मबन्ध से रागद्वेष के निमित्त से जीव के रागद्वेष भाव पैदा होते हैं और | रूप भाव होते रहते हैं। यह चक्र अभव्य जीवों की रागद्वेष से पुनः कर्मों का बन्ध होता है, यह सिलसिला | अपेक्षा से अनादि अनन्त है और भव्य जीवों की अपेक्षा भी अनादि से चला आ रहा है। जीव के न पहले रागद्वेषादि | से अनादि सान्त है। भाव हुए और न पहले कर्म हुए। रागद्वेष को पहले | जीव स्थूल शरीरों को अनन्तवार ग्रहण कर-कर माने तो बिना कर्मोदय के कैसे हुए? और कर्मों को | के छोड़ता आया है। परन्तु तब भी यह संसार से नहीं पहले माने तो वे भी रागद्वेष के बिना जीव के कैसे | छूट सका है। जब तक इसके सूक्ष्म कार्मण शरीर लगा बँध गये? इसलिए यहाँ भी दोनों ही को अनादि मानने | हुआ है, तब तक यह संसार से नहीं छूट सकता है। से वस्तु व्यवस्था बन सकेगी। पंचास्तिकाय ग्रन्थ में कहा | जैसे जब तक चावल पर से छिलका दूर नहीं हो जाता, है कि
| तब तक उसमें अंकुरोत्पत्ति बनी ही रहेगी, उसी प्रकार जो पुण संसारत्थो जीवो, तत्तो दु होदि परिणामो। जब तक कर्मरूप छिलका आत्मा पर बना हुआ है, तब परिणामादो कम्म कम्मादो, होदि गदिस गदी। १२८॥ | तक संसाररूप अंकुर भी बना ही रहेगा। भावकर्म से गदिमधिगदस्स देहो देहादो, इन्दियाणी जायंते। द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावक होता रहता है। पूर्वकर्मों तेहिं दु विसयग्गहणं, तत्तो रागो य दोसो वा ॥१२९॥ | के उदयकाल में होनेवाले रागद्वेष भावों को भावकर्म जायदि जीवस्सेयं भावो, संसारचक्कवालम्मि। कहते हैं और रागद्वेष से होनेवाला कर्मबन्ध द्रव्यकर्म इति-जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥१३०॥ | कहलाता है। अर्थ- जो जीव संसार में स्थित है, उसके रागद्वेष- |
(शेष अगले अंक में)
'जैन निबन्धरत्नावली' (भाग २) से साभार सिंरोज (म.प्र.) में शिक्षक-ऊर्जा-अर्जन समारोह सम्पन्न परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से पूज्य मुनि १०८ निर्णयसागर जी महाराज पू. मुनि श्री १०८ प्रणम्यसागर जी महाराज एवं पू. मुनि श्री १०८ चन्द्रसागर जी महाराज के सान्निध्य में सकल दिगम्बर जैनसमाज सिरोंज द्वारा २६-२८ सितम्बर २००९ को श्री अतिशय क्षेत्र नसियाँ जी सिरोंज में त्रिदिवसीय 'पाठशाला शिक्षक ऊर्जा-अर्जन समारोह' सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ।
ऊर्जा-अर्जन समारोह में विभिन्न प्रांतों से लगभग ७५ पाठशालाओं के ३५० शिक्षक शिक्षिकाओं ने सम्मिलित होकर ज्ञानार्जन किया एवं बच्चों को जैनधर्म से संस्कारित करने हेतु यथेष्ट निर्देश पूज्य मुनित्रय एवं ब्रह्मचारी भरत भैया से प्राप्त किए।
धर्मोदय परीक्षा बोर्ड खुरई रोड़ सागर (म.प्र.) द्वारा प्रकाशित संस्कारोदय भाग ३ व भाग ४ का सभी को पूज्य मुनि श्री द्वारा स्वाध्याय कराया गया। अंतिम दिन इंदौर से पधारे पं. रतनलाल जी एवं मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) से पधारे श्री लुहाड़िया जी ने आयोजक एवं मुनिराजों के अथक प्रयत्नों की सराहना की।
धर्मचन्द्र वाझल्य, भोपाल दमोह (म.प्र.) में अणव्रतधारिणी माता समताश्री का सल्लेखना पूर्वक मरण . आर्यिका रत्न उपशांत मति माता जी के मंगल आशीर्वाद एवं पावन प्रेरणा से १० प्रतिमा अंगीकार कर अणुव्रतधारणी बनी माता समताश्री जी ने, जब इस नश्वर देह को त्यागा, तो उनकी अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने के लिए अपार जनसमूह उमड़ पड़ा। माता समताश्री जी की अन्तिम यात्रा दिगम्बर जैनधर्मशाला से प्रारम्भ होकर मतिबिहार जयशंकर धाम पहुँची, जहाँ उनकी नश्वर देह को अग्नि में समर्पित कर अंतिम संस्कार किया गया।
सुनील वेजीटेरियन -अक्टूबर 2009 जिनभाषित 13
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