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________________ सम्बन्ध प्रयत्क्ष दिख रहा है, तो सूक्ष्म कार्मण शरीर के । में स्थूल मिश्रण भी नहीं हो सकता था। यह स्थूल मिश्रण साथ होना क्यों नहीं माना जावे? और आत्मा का ज्ञानगुण | भी सूक्ष्म कार्मण शरीर की सिद्धि में एक हेतु हो सकता अमूर्त है, वह भी मदिरापान से विकृत हो जाता है। है। पूर्व में बिना कार्मण शरीर के सम्बन्ध के अन्य औदारिक तथा ब्राह्मी आदि के सेवन से ज्ञानगुण का विकास होता | शरीरों का सम्बन्ध होना मानने पर मुक्त जीवों के भी है। इस तरह अमूर्त ज्ञान पर मूर्त पदार्थों का असर होना | पुनः शरीर ग्रहण करने का प्रसंग आवेगा। इत्यादि कथन भी प्रत्यक्ष है। जब अमूर्त का मूर्त के साथ सम्बन्ध आचार्य विद्यानंदि ने तत्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के प्रत्यक्ष हमारे सामने है, तब परोक्ष सूक्ष्म कार्मण शरीर 'सर्वस्य' सूत्र की व्याख्या करते हुए श्लोकवार्तिक में के साथ आत्मा का सम्बन्ध भी क्यों नहीं माना जा सकता| निम्न शब्दों में प्रकट किया हैहै? माना कि जीव और कर्म दोनों विजातीय हैं एक सर्वस्यानादिसंबंधे चोक्ते तैजसकार्मणे। अमूर्त और चेतन है, तो दूसरा मूर्त और अचेतन है। शरीरांतरसंबंधस्यान्यथानुपपत्तितः॥ इस विजातीय सम्बन्ध से ही तो जीव की अशुद्ध दशा "तैजसकार्मणभ्यामन्यच्छरीरमौदारिकादि, तत्संबंहुई है। ऐसी दशा जीव की कभी किसी की हुई नहीं | धोऽस्मदादीनां ताबत् सुप्रसिद्ध एव स च तैजसकार्मणाभ्यां है, वह अनादिकाल से चली आ रही है। जो दशा अनादि | संबंधोऽनादिसंबंधमंतरेण नोपपद्यते मुक्तस्यापि तत्संबंधसे चली आ रही है, उसमें तर्क नहीं किया जा सकता | प्रयोगात्।" कि ऐसा विजातीय सम्बन्ध कैसे हुआ? जैसे पाषाण के अर्थ- सभी जीवों के तैजसकार्मण शरीर अनादिकाल साथ सवर्ण का संयोग जिसे कनकोपल कहते हैं, वह | से सम्बन्ध रखनेवाले कहे गये हैं। यदि ऐसा न माना भी तो विजातीय ही है। कहाँ सुवर्ण और कहाँ पाषाण? | जायेगा, तो अमूर्त जीव के अन्य मूर्त और औदारिकादि पर क्या किया जावे? खान में से निकलते वक्त अनादि | शरीरों के सम्बन्ध की संगति ही नहीं बन सकेगी। तैजस से दोनों का ऐसा ही संयोग है। अगर जैनधर्म ऐसा कहता | और कार्मण शरीर से जुदे औदारिकादि शरीर है। उनका होता कि- पहले आत्मा कर्मसंयोग से रहित था बाद सम्बन्ध हम संसारी जीवों से हो रहा है, यह प्रसिद्ध में, उसके कर्मों का बंध हुआ है, तब तो ऐसा तर्क | ही है। वह सम्बन्ध तैजसकार्मण के साथ अनादि संबंध करना भी वाजिब हो सकता है कि- अमर्त का मर्त | माने बिना नहीं बन सकता है। अन्यथा मुक्त जीव के के साथ बन्ध कैसे हुआ? परन्तु जैनधर्म तो जीव और भी उन शरीरों का सम्बन्ध प्रयोग होने लग जावेगा। कर्म के सम्बन्ध को अनादि कहता है। वस्तु की जो भावार्थ- अमूर्त आत्मा का मूर्त तैजसकार्मण शरीरों व्यवस्था बिना किसी के की हई अनादि से चली आ के साथ अनादि से सम्बन्ध चला आ रहा है। इसी से रही है, उसमें तर्क की कोई गुंजाइश ही नहीं है। जैसे | तो हमारी आत्मा के साथ औदारिक शरीर का सम्बन्ध अनादि से चले आ रहे सुवर्ण और पाषाण के मेल में | प्रत्यक्ष दिख रहा है। अन्यथा अमूर्त का मूर्त के साथ कोई तर्क करे कि यह विजातीय सम्बन्ध क्यों हुआ? | सम्बन्ध नहीं हो सकता था। यह संसारी जीव औदारिकादि कैसे हुआ? ऐसा तर्क नि:सार है। उसी तरह जीव और | स्थूल शरीरों के साथ बहुत काल तक रहता है। अकेले कर्म के सम्बन्ध में तर्क करना नि:सार है। | सूक्ष्म कार्मण शरीर के साथ तो बहुत ही कम रहता मूर्तिक औदारिकादि शरीरों का सम्बन्ध भी आत्मा | है। वह भी हर विग्रहगति में अधिक से अधिक तीन के इसी कारण से होता है कि- मूर्त कार्मण शरीर का | समय मात्र हो। सम्बन्ध आत्मा के पहिले ही से हो रहा है। अगर कार्मण | जीव और कर्मों का सम्बन्ध, जो अनादिकाल का से सम्बन्धित आत्मा पहले से न होता तो औदारिकादि | कहा जाता है वह प्रवाह की अपेक्षा समझना चाहिये। शरीरों का सम्बन्ध भी आत्मा के नहीं हो सकता था। जैसे मनुष्यलोक में मनुष्य जन्मते और मरते हैं, परन्त मतलब कि मूर्त कार्मण शरीर का सक्ष्म मिश्रण आत्मा | लोक कभी मनुष्यों से शून्य नहीं रहा है। यह प्रवाह के साथ पहले ही से हो रहा था. इसी से मर्त औदारिकादि | सदा से चलता आ रहा है। उसी तरह आत्मा में पराने शरीरों का स्थूल मिश्रण भी उस मिश्रण में मिल जाता | कर्म झड़ते और नये कर्म बँधते रहते हैं। आत्मा कभी है। अगर पहले से सूक्ष्म मिश्रण न हुआ होता, तो बाद | कर्म शून्य नहीं रहा है। यह प्रवाह अनादि से चला आ 'अक्टूबर 2009 जिनभाषित 12 . www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524344
Book TitleJinabhashita 2009 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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