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________________ दुकानदार कहता है- ऐसे नहीं देंगे, पहले पिताजी से पूछ कर आओ दौड़ता हुआ पिताजी के पास जाकर पूछ कर आ जाता है। दुकानदार ने बालक से पूछाक्या कहा उन्होंने? " वह ५० का नोट था। उसमें से कुछ चाकलेट ले लो, बाकी के पैसे लाकर हमें दे दो। चिल्लर हो जायेगी ।" उनके पास चिल्लर नहीं थी । दुकानदार ने पूरे ५० रुपये की चाकलेट दे दी। वह भूल गया क्योंकि चाकलेट गिनने में लग गया। उसको मालूम नहीं कि ५० का नोट है या कितने का। ऐसा ही कितने लोगों का हाल हो रहा है। अब आज उनकी वैयावृत्ति, या उनकी चिकित्सा कैसे करें हम धारणा एक बार बन जाती है बन्धुओ तो निधत्ति और निकाचित ! कर्म के लिए भी कारण हो सकती है और अच्छेअच्छे व्यक्तियों के माध्यम से भी वह निकाचित कर्म छूट नहीं पाता। वह कर्मफल देकर ही जायेगा। ऐसा कर्म का बंधन हो जाये भैया! कषायों के साथ तत्त्वनिर्णय नहीं करना चाहिए। विचार-विमर्श के रूप में यह कहना चाहते हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में यह लिखा है कि किसी भी रागीद्वेषी देव की पूजा मत करो आप्त की पूजा करो, ऐसा लिखा है हाँ देवों के देव हैं, वे ही आप्त हैं। उनकी पूजा करो। इनमें क्षायिक सम्यक्त्व है कि नहीं, सर्वज्ञता है कि नहीं, सर्वदर्शीपना है कि नहीं? यह देखना हमारी बुद्धि का काम नहीं है। यह हमारे श्रद्धान का ही विषय है। बाह्य में हमारे भगवान् कैसे होते हैं? बाह्य से अठारह दोषों से रहित होते हैं। अन्तरंग में अनन्त चतुष्टय से युक्त होते हैं। अनन्तचतुष्टय में से आप एक चतुष्टय का नाम ले लो। नाम तो ले सकेंगे लेकिन आँखों से नहीं देख सकते। जो नहीं दिखता । उसके बारे में श्रद्धान रखो। इस बात का ध्यान रखना चाहिए। इस प्रकार आगमपद्धति से देव-शास्त्र-गुरु का आलम्बन लेने से दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय, क्षयोपशम होता है। षट्खण्डागम आदि में अकाट्य रूप । से ऐसा कहा है। जातिस्मरण, देवदर्शन- जिनबिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, देवर्द्धिदर्शन आदि को सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण माना है। आज के युग ने एक धर्मश्रवण को ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का साधन बना लिया, बाकी जितने साधन हैं, वे मानों व्यर्थ ही हैं। धर्मश्रवण करने के लिए भी वहाँ पर पक्षपात हो रहा है। Jain Education International श्रवण करायेंगे हम, आप श्रवण करो, आप कुछ जानते नहीं हो, हम सब जानते हैं। पढ़े लिखे हैं और प्रवचन चालू हो गया। आप पढ़ायेंगे, हम पढ़ेंगे। आप कहेंगे 'हूँ' तो कहो 'हूँ' नहीं तो हमारा रास्ता ही बंद हो जायेगा । हमारा रास्ता आप पर निर्भर है। लेकिन ऐसा नहीं है। एक बात और कह सकता हूँ कि यदि श्रमण है और ऊपर से कोई लिङ्गाभास नहीं है, तो वह जिनलिङ्ग है यदि जिनलिङ्ग को सुरक्षित रखा आपने तो २८ । मूलगुणों के साथ उसमें कोई कमी नहीं आई शैथिल्य अलग वस्तु है । तो निश्चितरूप से, उसके दर्शन करने से तिर्यंचों को भी बिना उपदेश के सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है। यह निश्चित बात है। 'देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सया मणो' भीतर सम्यग्दर्शन है कि नहीं यह आपका विषय है ही नहीं आपके पास कोई थर्मामीटर नहीं है कि इनके पास रत्नत्रय है या नहीं? ये कुछ ऐसे गंभीर विषय हैं, इनका स्पष्टीकरण कल भी किया जा सकता है। । । जिनभाषित के आजीवन सदस्यों से निवेदन 'जिनभाषित' का मुद्रण-प्रेषण अत्यधिक व्ययसाध्य हो गया है। अतः उसका आजीवन सदस्यता शुल्क 1100 रुपये एवं वार्षिक सदस्यता शुल्क 150 रुपये करने के लिए हम विवश हुए हैं। आजीवन सदस्यों से अनुरोध है कि वे शेष राशि 600 रुपये यथाशीघ्र भेजने की कृपा करें। वे यह राशि SBI Agra Branch SIB A/c No. 10410062343 में ट्रान्सफर कर सकते हैं। ( शेष अंगले अंक में ) 'श्रुताराधना (२००७)' से साभार रतनलाल बैनाड़ा, प्रकाशक- जिनभाषित' सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा- 282002 ( उ० प्र०) For Private & Personal Use Only अक्टूबर 2009 जिनभाषित 10 www.jainelibrary.org
SR No.524344
Book TitleJinabhashita 2009 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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