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________________ तृतीय अंश क्या श्रमणाभास पूजनीय हैं? आचार्य श्री विद्यासागर जी श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) में मई २००७ में आयोजित श्रुताराधना शिविर में १४ मई २००७ के द्वितीयसत्र में विद्वानों की शंकाओं के समाधानार्थ आचार्यश्री द्वारा किये गये प्रवचन का तृतीय अंश प्रस्तुत है। पञ्चम काल के अन्त समय तक हम यही कहेंगे। कहो। वह शास्त्र हो ही नहीं सकता। वह विकृत हो जो समन्तभद्र स्वामी ने कहा है। गया। अब आप बेचना चाहते हो, प्रचार-प्रसार करना आज धर्म कम होता जा रहा है, कम होना तो चाहते हो, तो किसी का भी नाम लेते चले जाओ। कुन्दकुन्द स्वाभाविक है। | स्वामी का नाम ले लो, समन्तभद्र स्वामी का नाम ले शंका- जैन श्रमणाभासों को पूजना चाहिए या नहीं? लो। जिस किसी का नाम ले लो, लेकिन उसको देकर समाधान- आपने शुरुआत कर दी तो सुनो। आभास | आप एकान्त मिथ्यात्व का प्रचार कर रहे हैं। भोला ग्राहक का अर्थ आप जानते हैं 'न विद्यते वस्तुतः इति आभासः' तो भ्रमित होकर स्वीकार कर लेगा। लेबल और लेबर आभास की यह परिभाषा है। | में बहुत अन्तर है। लेबल ही सिगनल है। दवाई देखो, लिङ्ग नहीं रहा, तो वह लिङ्गाभास हो गया। आभास | पढ़ो, फाड़ो नहीं। लेबल पढ़कर ही निर्णय किया जाता में कमियाँ आ जाती हैं। वैधानिक रूप धारण कर लेती | है कि इसमें दवाई है। यह दवाई की शीशी है। कोई हैं, उन्हें आभास कहते हैं। निश्चय-नयाभास, व्यवहार- पानी भरकर रख जाये और लेबल देखकर ले आओ, नयाभास, उभयनयाभास, तत्त्वनिर्णय के क्षेत्र में ये सभी | ले आओगे? महाराज! पसीना बहाओ तब मुद्रा आती आभास मिथ्या कहे गये हैं। सुख नहीं सुखाभास, शास्त्र | है। लेबल देख लो, नहीं, इसी प्रकार किसी एक महाराज नहीं शास्त्रभास । वह व्यक्ति नहीं. किन्त व्यक्ति का आभास।। का नाम देख लो। आचार्यप्रणीत है या नहीं? इतना देखना आभास के साथ आप जहाँ कहीं भी चलाओ सब भ्रम | पर्याप्त नहीं होगा। ऊपर से नीचे तक देख लो। अर्थ, है। वह कुछ मिलावट के साथ है। लिङ्ग को यदि विकृत | भावार्थ, विशेषार्थ आदि भी देख लो। ऊपर के साथ कर दिया, तो वह लिङ्गाभास है। उसको हम संविधान | तुलना कर लो। ऐसा भारी प्रचार-प्रसार पहले नहीं होता का रूप नहीं दे सकते। आप हैं इसलिए उसमें कुछ | था, जैसा आज हो रहा है। पहले भी होता होगा, किन्तु छूट कर दें? छूट नहीं हो सकती। क्योंकि मुद्रा है। मुद्रा | आज जैसा नहीं। का मतलब मान लो नोट है, उसके दो पहलू हैं। एक . लेकिन पहले भी परीक्षाप्रधानी श्रावक रहे होंगे। तरफ मुद्रा है और एक तरफ सन् वगैरह लिखा है। पहले भी कम संख्या में थे, आज भी कम संख्या में इन दोनों को देखा जाता है, लिङ्ग बदल दिया जाय. | हैं। सभी लोग परख नहीं कर सकते। इतना अवश्य नम्बर गलत हो जाय, तो काम नहीं चल सकता। दोनों | है कि आपकी दुकान में चाहे छोटा सा बालक आ हों, तो काम चलेगा। मुद्राभास नहीं होना चाहिए। उसी | जाय, चाहे ८० साल का वृद्ध आ जाय, आप सही कीमत के माध्यम से आप वस्तु को देंगे और लेंगे। अन्यथा| देख करके यदि उसको वस्तु देते हैं, तो बाजार में आपका देन समाप्त हो जायेगा। अब देव-शास्त्र-गरु के माध्यम | नाम बहुत अच्छा होगा। बच्चा है, इसलिए ऐसे कैसे से सम्यग्दर्शन की भूमिका बनती है। ऐसी स्थिति में | दे दें। नहीं, मानलो कोई छोटा बच्चा है और ५० का देव को देव के रूप में रखो, गुरु को गुरु के रूप | नोट लिये है और कहता है कि मुझे चाकलेट दे दो। में रखो, शास्त्र को शास्त्र के रूप में रखो। जिसमें हिंसा | दुकानदार पूछता है- तुम कहाँ से आये हो, बेटे! बच्चा का ही प्रतिपादन होने लग जाय, वह शास्त्र कैसे हो कहता है हम अमुक जगह से आये हैं। अरे! यह तो सकता है? नहीं हो सकता। जो आस्रव और बंध के | गड़बड़ है। ५० रुपये की चाकलेट कैसे दे दें? आज लिए कारण है, उसके लिए आप संवर और निर्जरा के | की बात नहीं, उस समय की बात है जब एक पैसे लिए कारण कहो और जो संवर, निर्जरा के लिए कारण | की एक चाकलेट आती थी। आज ५० रुपये में भी है उसके लिए आप आस्रव और बंध के लिए कारण | एक चाकलेट आती है। उस समय की बात है। अब -अक्टूबर 2009 जिनभाषित १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524344
Book TitleJinabhashita 2009 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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