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स्खलन
सरोजकुमार
तुमने छोड़ जरूर दिया था संसार / पर धीरे धीरे तुम्हें लगने लगा था / कि संसार में रहकर / संसार छोड़ना / तुम्हारे लिए दुष्कर है । / तुम उसे इस शक्ल में छोड़ते / वह उस शक्ल में जुड़ जाता / पकड़ने-पकड़ने में ही पंछी उड़ जाता ।
तुम्हारा सपना / तुम्हारे कद से बहुत बड़ा था / बड़े सपने देखने में बुराई नहीं / बुराई बड़े सपनों की इबारत छोटी कर देने में है ।
तुम उड़ रहे थे हवा में / ऊँचे और ऊँचे, इस भ्रम में / कि सपनों के महल के दरवाजे / बस आसपास ही कहीं हैं / होते होते हो यह गया / कि तुम जो थे, वो रहे नहीं / जो होना चाहते थे, हो नहीं पाए ।
तुम्हारी भंगिमाओं से सजी हुई दीवारें / इर्द गिर्द घूमती कारें / अनथक जयकारें / साष्टांग मनुहारें / तामझाम दिव्य दिव्य / साजबाज भव्य भव्य / तुम्हारी प्रव्रज्या / तुम्हारे निजी आलोक में प्रज्वलित होती रही ।
बावजूद इस सबके / मुझे तुम पर, गुस्सा क्यों आना चाहिए? / वह तुम्हारा निजी निर्णय था / और यह तुम्हारा निजी स्खलन है ।
हाड़मांस के साधारण आदमी के साथ / ऐसा होना आश्चर्य की बात नहीं / पर तुम पर / आश्चर्य नहीं होने के लिए जरूरी है / कि मैं तुम्हें साधारण आदमी मानूँ / बड़ा या खास या विशेष या असामान्य नहीं / तुम जरूर स्वयं को ऐसा मानते रहे / इसीलिए संकट में हो ।
सब चुनते हैं अपने-अपने रास्ते / तुमने भी चुना एक रास्ता / सही गलत जो भी हो / निर्णय तुम्हारा था । / अब तुम अभिशप्त हो / उसी रास्ते पर चलते दिखने के लिए। / त्याग ओर संन्यास की जिस गाड़ी में / तुम लपक लपक चढ़े थे / उसमें रिवर्स गीयर की सुविधा / कभी नहीं रही।
तुम अपने संकल्पों को साध सको / ऐसी मनोकामनाओं के साथ / मुझे तुम पर दया आ रही है / क्रोध नहीं / न तिरस्कार । / तुम मेरी ओर से निश्चिन्त रहो / सबके सामने मैं तुम्हें / वैसे ही प्रणाम करूँगा / जैसे मैं मंदिर की मूर्तियों को करता हूँ। / अभी मैंने इस बात पर / जरूर विचार नहीं किया है / कि ऐसा करने से / मेरे परिणाम / कहीं दूषित तो नहीं होंगे।
३७, पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - १८
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