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________________ ज्ञान। इस (ऐसे) ज्ञान से कर्म-फल भोगने और नये कर्म- | धीरे आठो कर्मों के १४८ उत्तर-भेदों की चर्चा भी श्रेष्ठ बंध होने की प्रक्रिया को वांछित दिशा दी जा सकती है। उदाहरणों एवं प्रसंगों के माध्यम से हृदय तक पहुँचा देते जो व्यक्ति कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह मोह को क्रमशः | हैं। ध्यान दें, पंद्रहवें प्रवचन में गुरुवर बतलाते हैं कि साधक विसर्जित करते हुये और वीतराग-भाव को अपनाने की | के कान ऊपर-ऊपर बहुत कुछ बातें सुनते रहते हैं, जब अभिलाषा लाकर, अशुभकर्म-बंध को रोक सकता है, शुभ | भीतर से सुनने की आकांक्षा का प्रादुर्भाव होता है, तब कर्म-बंध को गति दे सकता है। 'धर्म-श्रवण' उसके जीवन को देवत्व की ऊँचाई प्रदान कर देता है। यहीं से शुरू होती है तपस्या में तत्परता, भले स्व-स्फर्त-चितंन उपजता है कि कर्मों पर विजय प्राप्त करने | ही शरीर कमजोर या रुग्ण हो. पर वह अपने जीवनोत्थान के लिए मुनिवर ने तीन मार्ग बतलाये हैं व आत्म-विकास के लिये 'कुछ' अवश्य कर जाता है। १. अपने चारों ओर के वातावरण से सामंजस्य - मुनिवर ने अंतिम प्रवचन में बंधन और मुक्ति के स्थापित करें। उपाय बतलाते हुए जो आख्यान प्रस्तुत किए हैं, वे कर्म२. किसी के तर्क, विवाद या प्रश्न पर उत्तर देने | सिद्धांत की मूल-पोथी का सरलीकरण करते हैं और पाठक की शीघ्रता न करें, अर्थात् शीघ्र प्रतिक्रिया न करें। यदि के चित्त में स्थान पाते हैं। करने की स्थिति ही बन जावे, तो सकारात्मक और | | वर्तमान दौर में भारत वर्ष में अनेक युवा मुनिगण रचनात्मक प्रतिक्रिया करें। बहुत प्रभावनाकारी लहजा अपनाकर प्रवचन कर रहे हैं, ३. अन्य के घात या स्व के प्रतिघात से बचने का | उन्हें सुनने में मन भी लग रहा है, किन्तु पू. मुनि क्षमासागर श्रेष्ठ प्रयत्न करें। जी महाराज ने तो डेढ़ दशक पूर्व अपने सचोट-उच्चारणों मुनिवर श्री क्षमासागर जी ने चौथे प्रवचन में कहा | और तर्कसंगत भाषा-विज्ञान से जो श्रेष्ठ माहौल बनाया था, है कि कर्म, जब अपना फल देने के लिए आ जाये, उसका | वह आज भी कानों में गूंजता रहता है। उनके तत्कालीन उदय हो जाये, तब व्यक्ति का परिणाम समतामय रहना केसिट. सी.डी. अभी भी सहस्रों परिवारों में सने जा रहे कर्म अधिक कष्ट नहीं दे | हैं। पूज्य मुनि श्री क्षमासागर जी पायेंगे, आदमी के भीतर का हर्षविषाद नियंत्रित हो जायेगा। | बावजूद, सक्रिय हैं, साधनालीन हैं और कर्मों का अनुवाद समस्त १८ प्रवचन गोपन संकेत तो करते ही हैं, समझाइश | मुक्ति में कर रहे हैं। उनकी दृढ़चर्या देखकर ही समझ भी देते हैं कि जैन-दर्शन में कर्म के मुख्य रूप से तीन | लेना चाहिये- 'कर्म कैसे करें?' भेद हैं- द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म। तीनों कर्मों को प्रस्तुत पुस्तक एक बार पढ़ने लायक नहीं, जीवन समझाने में उनकी भाषा कमाल करती हुई लगती है, लोग | भर पढ़ने योग्य है, इसकी प्रतियाँ हर घर में सहज उपलब्ध पढ़ते जाते हैं और समझते जाते हैं। फिर द्रव्य-कर्म के रहें ताकि गृह-सदस्य सुविधा से दोहराते रहें। ग्रंथ का चार भेद- प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध | प्राक्कथन श्री एस.एल. जैन, (मैत्री समूह) ने लिखा है। समझाते हैं। एक प्रवचन में वे प्रकृति-बंध के आठ प्रकारों ४०५, सरलकुटी, गढ़ाफाटक, को चुपचाप पाठक के मस्तक में उतार देते हैं और धीरे जबलपुर (म.प्र.) किस्मत में जो लिखा है, वह आयेगा आपसे। फैलाइये न हाथ, न दामन पसारिये। आतिश पुरानी रौशनी में औ नई में फ़र्क इतना है। उसे किश्ती नहीं मिलती, इसे साहिल नहीं मिलता। 'अकबर' इलाहाबादी अहलेहिम्मत मञ्जिलेमक़सूद तक आ ही गये। बन्दयेतक़दीर किस्मत का गिला करते रहे। चकबस्त १. साहसी लोग, २. लक्ष्य, ३. भाग्यवादी लोग अगस्त 2009 जिनभाषित 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524342
Book TitleJinabhashita 2009 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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