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________________ निमित्त मिलाने की बातें हैं। किन्तु यदि देवदर्शन या । जब किसी के कार्य में सहायक बन जाते हैं, तब हम उपासना करने से शांति मिलती है या सम्यग्दर्शन की | उस कार्य के कर्ता होने का भ्रम पालने लगते हैं कि प्राप्ति होती है, तब ही देवदर्शन शांति या सम्यग्दर्शन | 'मैंने उसका यह कार्य किया।' यह कर्तृत्व का भ्रम की प्राप्ति में निमित्त कहलावेगा, परन्तु हमें अपनी कमजोरी | अनादि से हमें पर-वस्तुओं और उनकी परिणतियों का के कारण यह ज्ञात नहीं है कि देवदर्शन कब सम्यग्दर्शन | कर्ता-धर्ता मानने के कारण संसार-परिभ्रमण का कारण का निमित्त बनेगा, इसलिये हम सतत देवदर्शनादि क्रियाओं | बना हुआ है। जब कि हम पर-वस्तुओं के परिणमन को रुचिपूर्वक करते रहने में प्रयत्नशील रहा करते हैं | में यदि सहायक हों, तो केवल निमित्त ही हो सकते और रहना भी चाहिए। हैं, उसके कर्ता नहीं। अपने अपने परिणमनस्वभाव के नयों की दृष्टि से विचार करने पर कारण सभी वस्तुएँ स्वयं ही परिणमन करती रहती हैं, 'स्वाश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहारः' अर्थात् | उनमें निमित्त केवल सहायक होता है, इस विषय में निश्चय स्वद्रव्य के अश्रित और व्यवहार परद्रव्य के आश्रित | स्वामी अमृतचन्द्राचार्य का कथन बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। होता है, इस नियम के अनुसार निश्चयनय की दृष्टि | वे लिखते हैंसे जो द्रव्य स्वयं कार्यरूप परिणत होता है, जिसमें उसकी | जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये। परिणमनशीलता कारण है वह उपादान कारण है तथा स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुदगलाः कर्मभावेन॥ १२॥ परद्रव्य जो उसकी परिणति में सहकारी होता या दिखाई परिणममानस्य चितः चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः। देता है वह निमित्त कहलाता है। किन्तु निमित्त कारण भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि॥१३॥ तो कहलाता है, पर वह कार्य का कर्ता नहीं होता क्योंकि पुरुषार्थसिद्ध्युपाय जो द्रव्य कार्यरूप परिणमन कर रहा है निश्चय से उस अर्थात् जीव के रागादि भावों का मात्र निमित्त पाकर परिणमन का वही कर्ता है। निमित्त को उसका कर्ता | पुद्गल के परमाणु स्वयं ही कर्मरूप परिणमन करते हैं मानना केवल आरोपित व्यवहार है, जैसे कुम्हार को घट | और आत्मा अपने चैतन्यमयी भावों से (राग-द्वेषादि रूप) का कर्ता मानना। कुम्हार घट के बनने में केवल निमित्त | परिणमन करता है, तब उदयागत कर्मपरमाणु उसमें निमित्त ही है। यदि कुम्हार स्वयं मिट्टी के बिना घट बन जाता, | मात्र होते हैं। तो ही वह घट का कर्ता कहा जा सकता है। पर ऐसा इन कारिकाओं में निमित्त को उसकी कारणता होना संभव नहीं है। जब कुम्हार घट बनाने में अपना | से नकारा नहीं गया है। पूर्वबद्ध कर्मोदय का निमित्त योग और उपयोग लगा रहा हो, तब वह स्वयं के योग | पाकर ही संसारी जीव में रागद्वेषादि विकारी भाव उत्पन्न और उपयोग रूप परिणति का ही कर्ता निश्चय से होता | होते हैं और कर्मोदय के अभाव में मुक्तजीव में विकारी | भाव नहीं होते। इसी प्रकार जीव के रागादि विकारी इस प्रकार कार्य की उत्पत्ति में उपादान और निमित्त | भावों का निमित्त पाकर पुद्गल के परमाणु कर्मभाव को का व्यवहार होता है, किन्तु निमित्त और उपादान की | प्राप्त होते हैं, बिना विकारी भावों के कर्म नहीं बँधते। स्थिति और क्षमता अपनी मर्यादा को लिये हुए है। इस | इससे दोनों में परस्पर अविनाभाव सिद्ध हो जाता है जिससे विषय में केवल निमित्त या उपादान का पक्ष लेकर विवाद | वे एक दूसरे के परिणमन में निमित्त कारण कहलाते करना न तो उचित है और न उससे काम ही हो सकता | हैं, किन्तु जब तक कार्य न होगा तब तक उनमें परस्पर है। जिस दृष्टि से जो है, उसको उसी रूप और सीमा | निमित्त कारणता नहीं मानी जावेगी और न उपादान ही। में जानने और मानने से ही सम्यग्ज्ञान हो सकता है। | इस प्रकार संक्षेप में निमित्त और उपादान की अपनी संकुचित दृष्टि रखकर केवल पक्षपात करते हुए | स्थिति है, जिसके संबंध में विवाद करना अनावश्यक विवाद करने से कुछ भी होनेवाला नहीं है। और अनुचित है। यहाँ व्यवहार में यह देखने में आता है कि हम वात्सल्य रत्नाकर (द्वितीय खण्ड) से साभार 17 अगस्त 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524342
Book TitleJinabhashita 2009 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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