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________________ के सिवाय प्रकाश भी निमित्त होता है। कि न केवल मिट्टी रूप उपादान के बिना घड़ा बनता साधारणतः कारणों का कार्य के साथ अविनाभाव | और न कुम्हार या अन्य जन के योग और उपयोग के सम्बन्ध रहा करता है। जिनका कार्य के साथ अविनाभाव | बिना। इस सम्बन्ध में केवल निमित्त या केवल उपादान संबंध हो अर्थात् जिन के बिना कार्य न हो, वे ही वास्तव | को ही कारण मानने से विवाद होता है और जब तक में उस कार्य के कारण माने और कहे जा सकते हैं | दोनों कारणों में से एक का आग्रह किया जाता रहेगा और जिनके बिना भी कार्य हो जाय वे उसके कार्य | तब तक विवाद भी होता ही रहेगा जो सर्वथा अनावश्यक के कारण नहीं माने जा सकते। तथा जिनके होने पर | है और लक्ष्य के अनुकूल भी प्रतीत नहीं होता। यदि भी कार्य न हो, वे भी कारण नहीं माने जाते। जैसे | कुम्हार के योग और उपयोग के बिना ही घड़ा बन सुनार ने सोने का कड़ा बनाया, तो सुनार ही कड़े में | जाता, तब ही केवल उपादान से कार्य की उत्पत्ति मानते निमित्त कहा जावेगा सुनारन या अन्य व्यक्ति नहीं। | हुए कुम्हार को सर्वथा अकिंचित्कर मानना न्यायसंगत पदार्थों में जो कार्य रूप स्वयं परिणत होता है | होता। अथवा बिना मिट्टी के ही कुम्हार घड़ा बना देता, उसे उपादान और बाह्य सहायक पदार्थ को निमित्त की| तो घड़े का उपादान मिट्टी को मानना भी अकिंचित्कर संज्ञा प्रदान करना यह एक व्यवहार है। तथा जो उपादान | होता। किन्तु दोनों पक्षों के मानने में प्रत्यक्ष से ही बाधा है वह दूसरे के कार्य में सहायक बन कर उसी समय | आती है और वैसा होना संभव भी नहीं है, अत: यथायोग्य निमित्त भी कहला सकता है और जो निमित्त है वह निमित्त और उपादान दोनों को कारण मानना न्यायसंगत अपने में जो नवीन पर्याय उत्पन्न हो रही है उसी समय सिद्ध होता है। उसका उपादान भी है। तात्पर्य यह कि प्रत्येक पदार्थ | निमित्त स्वयं भी मिलते हैं और बुद्धिपूर्वक मिलाये एक ही समय में उपादान भी है और निमित्त भी है। भी जाते हैं, किन्तु वे सभी तभी निमित्त कहलावेंगे, जब जैसे मिट्टी से कुम्हार ने जब घड़ा बनाया, उस समय | वे इष्ट कार्य के होने में सहायक सिद्ध होंगे। यदि वे मिट्टी घड़े का उपादान और कुम्हार निमित्त कहलाता | इष्ट कार्य में सहायक नहीं हुए, तो वे कार्य के निमित्त है। किन्तु जिस मिट्टी को देखकर कुम्हार के मन में | नहीं माने जावेंगे, प्रत्युत यदि वे इष्ट कार्य के सम्पन्न घड़ा बनाने के भाव रूप परिणति हुई, उसमें वही मिट्टी | होने में बाधक बने, तो वे फिर बाधा में निमित्त कहे कुम्हार के घड़ा बनाने रूप भावों की उत्पत्ति में निमित्त | जावेंगे। जैसे कोई व्यक्ति धनार्जन हेतु परदेश जा रहा भी स्वयमेव कहलावेगी तथा वह कुम्हार उन भावों का | था और मार्ग में रात्रि हो जाने से वन में किसी वृक्ष उपादान। के नीचे विश्राम करने लगा। उसी वृक्ष के पृष्ठ भाग इस प्रकार मिट्टी और कुम्हार दोनों ही एक समय में एक वीतराग साधु तपस्या कर रहे थे। प्रातः उनके में परस्पर निमित्त और उपादान संज्ञा-व्यवहार को प्राप्त | दर्शन करने तथा धर्मोपदेश श्रवण करने से पथिक का हैं। न सदा सर्वथा कोई पदार्थ केवल किसी कार्य का | सांसारिक मोह भंग हो गया और वह मुनि बन गया निमित्त ही बना रहता है और न उपादान। अपने अपने | तथा फिर तपस्या कर मुक्ति को प्राप्त हुआ। इस में कार्यों को स्वयं में निष्पन्न करते हुए सभी पदार्थ उपादान आत्मकल्याण करने का उसे निमित्त नहीं मिलाना पड़ा, संज्ञा को प्राप्त हैं और दूसरे पदार्थों के कार्य में सहायक | स्वयं अकस्मात् ही मिल गया। बनकर या होकर वे ही निमित्त भी कहलाने लगते हैं। रही निमित्त मिलाने की बात, सो हम अपने कार्यों इस प्रकार एक ही समय में जब पदार्थ कथंचित् उपादान को सम्पन्न करने हेतु प्रतिदिन और प्रतिक्षण ही निमित्त और कथंचित् निमित्त भी सिद्ध हो रहा है, तब उसके | मिलाने में प्रयत्नशील रहा करते हैं, आत्मकल्याण और सम्बन्ध में सर्वथा उसे निमित्त या उपादान मानने का | शांतिप्राप्ति हेतु घर से देवदर्शन-पूजन-उपासना हेतु आग्रह करना भी आहत मत के अनेकांत के विरुद्ध | जिनमंदिर जाते हैं, ज्ञानार्जन हेतु गुरुजनों की सेवा करते ही कहलावेगा। हैं, धनार्जन हेतु व्यापार या दूसरों की सेवा करते हैं, इसके सिवाय केवल उपादान से या केवल निमित्त निवास हेतु गृहनिर्माण करते हैं, आखिर कुछ न कुछ से ही कार्य की उत्पत्ति मानना भी कोरा भ्रम है। जब ' किया ही करते हैं। यह अपनी-अपनी कार्यसिद्धि हेतु अगस्त 2009 जिनभाषित 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524342
Book TitleJinabhashita 2009 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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