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जैन कर्म सिद्धान्त
स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया एक मुमुक्ष प्राणी के सामने ४ प्रश्न उपस्थित होते। तो ईश्वर को सुष्टि रचने की जरूरत ही क्यों हई? हैं- १. संसार क्या है? २. संसार के कारण क्या हैं? | न रचने पर उसकी कौन सी हानि हुई थी? और रची ३. मोक्ष क्या है? ४. मोक्ष के क्या कारण हैं? इन्हीं | भी, तो किसी को सुखी, किसी को दुखी आदि क्यों चारों प्रश्नों के समाधान में ७ तत्त्व छिपे हुए हैं और | बनाया? यदि कहो कि जीव, जो अच्छे बुरे काम करता उन्हीं के साथ कर्मसिद्धांत भी। चेतन-अचेतन पदार्थों से | है, उनका वैसा ही अच्छा-बुरा फल ईश्वर देता है, उसी भरा हुआ, जो स्थान है वह संसार है। इस प्रथम प्रश्न | से जीवों को ये विविध प्रकार की अवस्थायें देखने में के उत्तर में २ तत्त्व आते हैं- जीव और अजीव। चतुर्गतिरूप | आती हैं, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं हैं। क्योंकि जब दुःखमय संसार में यह जीव कर्मों के फल से परिभ्रमण | ईश्वर स्वयं बुद्ध, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् है, तो जीवों को
करता है और जब तक कर्म आ-आकार जीव पहिले पापकर्म करने ही क्यों देता है, जिससे आगे चलकर के बँधते रहते हैं, तब तक जीव का संसार से छूटना| उसे उन पापियों को फल देने की नौबत आवे? हाकिम नहीं हो सकता है। इस दूसरे प्रश्न के उत्तर में आस्रव | के सामने अपराध करे, तब तो उसे हाकिम मना करे और बंध ये दो तत्त्व आ जाते हैं। सब कर्मों के बन्धन | नहीं और अपराध हो चुकने के बाद उसे दण्ड देवे, से छूट जाना इसका नाम मोक्ष है। इस तीसरे प्रश्न के | हाकिम का ऐसा करना योग्य नहीं है। इसके अलावा उत्तर में मोक्षतत्त्व आ जाता है। नवीन कर्मों का बन्ध | हम पूछते हैं कि ईश्वर समस्त सृष्टि में व्यापक है, नहीं होने देना और पुराने बँधे कर्मों को खिपा देना ये | तो व्यापक में क्रिया नहीं हो सकती है। देश से देशान्तर दो बातें मोक्ष का कारण हैं, इस चौथे प्रश्न के उत्तर | होने को क्रिया कहते हैं। व्यापक में यह क्रिया असम्भव में संवर और निर्जरा ये दो तत्त्व आ जाते हैं। इस प्रकार है। क्योंकि व्यापक सर्वक्षेत्र में व्याप्त है, इसमें कोई भी चारों प्रश्नों के समाधान में जीव, अजीव, आस्रव, बंध, | क्षेत्र अवशेष नहीं रहता है, जिसमें क्रिया हो सके। क्रिया संवर, निर्जरा और मोक्ष इन ७ तत्त्वों की उपलब्धि होती | के बिना सृष्टि की रचना नहीं हो सकती है। अव्यापक है। इन्हीं सत्यार्थ ७ तत्त्वों के श्रद्धान करने को जैनधर्म | माने, तो सर्वक्षेत्र की क्रियायें नहीं हो सकेंगी। जो ईश्वर में सम्यग्दर्शन (यथार्थ दृष्टि) कहा है। यही मोक्ष-महल | को अशरीरी मानें, तो अमूर्तिक से मूर्तिमान कार्य नहीं की प्रथम सीढ़ी है।
| हो सकते हैं वर्ना अमूर्त आकाश से मूर्त पदार्थ उत्पन्न अनन्त जीवों से व्याप्त यह संसार अनादिकाल | होने लगेंगे। तब असत् से सत पदार्थ की उत्पत्ति हो से चला आ रहा है और आगे अनन्तकाल तक चलता जायेगी। जो ईश्वर को शरीरसहित मान लिया जाये, तो रहेगा। इस संसार में रहनेवाले जीवों में कोई सुखी है, | ईश्वर सब को दिखना चाहिए और उसे निरञ्जन नहीं कोई दुःखी है, कोई नर है, कोई मादा है, कोई सबल | कहना चाहिए। जो ईश्वर को सर्वशक्तिमान् मानें, तो सबको है, कोई निर्बल है, कोई बुद्धिमान है, कोई मूर्ख है, | सुखी व सुन्दर बनाना चाहिए। यदि कहो कि बुरे काम कोई कुरूप है, कोई सुरूप है, इत्यादि जीवों की नाना | करनेवालों को बुरा बनाये, तो कर्म बलवान हुए, ईश्वर प्रकार की अवस्थायें जो देखी जाती हैं, उनका कारण | को सर्वशक्तिमान् मानना नहीं हो सकेगा। सर्वशक्तिमान जीव के किए हुए शुभाशुभ कर्मों के सिवाय और कुछ नहीं मानने से समस्त सृष्टि की रचना उससे नहीं हो नहीं है। जब यह प्राणी अपने मन वचन काय से अच्छे | सकती है और सब काम उसी के लिये होते हैं, तो बुरे काम करता है, तब आत्मा में कुछ हरकत पैदा | वेश्या, चोर उसने क्यों बनाये जिससे पापाचरण करना होती है। उस हरकत से सूक्ष्म पुद्गल के अंश आत्मा | पड़े? सृष्टि बनाने के पहले संसार में कुछ पदार्थ थे से सम्बन्ध कर लेते हैं, इनको ही जैनधर्म में कर्म बताया या नहीं? जो पदार्थ थे, तो ईश्वर ने क्या बनाया? जो है। इन्हीं शभाशभ कर्मों के फल से जीव की अच्छी पदार्थ नहीं थे. तो बिना पदार्थों के सष्टि कैसे बनाई? बुरी अनेक दशायें होती हैं। कुछ लोग इनका कारण बिना बनाये कुछ नहीं होता तो ईश्वर को स्वयं बना ईश्वर को ठहराते हैं। पर यह ठीक नहीं है। अव्वल | हुआ मानें तो सृष्टि को भी स्वयं बनी हुई क्यों न मानें?
अगस्त 2009 जिनभाषित 12
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