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सुखाने, तपाने पर वे शुद्ध हो जाते हैं, उनको त्यागी जन खा लेते हैं । किन्तु त्रसों के शरीर सुखाने, तपाने पर भी शुद्ध नहीं होते हैं, क्योंकि हड्डी मांस भले ही सूखे पके हों, उनमें सतत् त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। वाणिज्य
श्रावक को ऐसे निंद्य पदार्थों का व्यापार नहीं करना चाहिये - वन बगीचा काटना, आग लगाना, आटे पीसने की चक्की चलाना, गाड़ी, घोड़ा, गधा, ऊँट आदि वाहनों द्वारा आजीविका का करना, नाक कान छेदने की आजीविका, लाख, गंधक, संखिया, हड़ताल, तेजाब, केश (बाल), मद्य बेचना, दासी दास विक्रय, अस्त्र-शस्त्रों की अजीविका, मांस, चर्म जूता विक्रय आदि की आजीविका श्रावक को नहीं करनी चाहिये।
सामायिक
श्रावक को सामायिक करते समय हिंसा आदि पापों का त्याग कर अपनी आत्मा का ध्यान करना चाहिये। आत्मा नित्य है, शुभ है, शरण है, आनंदमय है, ज्ञान चैतन्य स्वरूप है और यह संसार अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, दुःख स्वरूप है, ऐसा विचार करना चाहिए ।
जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञानुसार सूक्ष्म जीव, परमाणु, धर्म, अधर्म द्रव्य का विचार करना चाहिये। ये संसारी जीवन अपने मिथ्यात्व, अविरति कषायों से अष्ट कर्मों को बाँधते हैं। उनका उदय आने पर अनेक कष्ट भोग रहे हैं। ये जीव इन दुःखों से कैसे छूटें? कर्मों का विपाक किस किस प्रकार हो रहा है, इत्यादि चिंतन किया जाए।
इस तीन सौ तेतालीस घन राजू प्रमाण लोक में, नीचे छह राजुओं में सात नरक हैं। उनके नीचे सात राजू लम्बे, छह राजू चौड़े, एक राजू मोटे स्थल में बाद निगोद है। सूक्ष्म- निगोद तो सर्वत्र व्यापक है। ऊर्ध्वलोक में वैमानिक देव, लौकांतिक देव, अहमिन्द्र देव, निवास करते हैं। सबसे ऊपर अनन्तानंत मुक्त जीव हैं उन सबका सिर अलोकाकाश से छू रहा है। पैंतालीस लाख योजन लम्बे चौड़े सिद्ध लोक में अनतानंत मुक्त जीव हैं। वहाँ पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, तथा नित्य-निगोद, इतर गति निगोद, अंसख्याते अनंते जीव हैं। हाँ विकलत्रय नहीं हैं। इत्यादि, परामर्श सामायिक में करना चाहिये। आत्मा के गुणों का मनन करना चाहिये। किसी से राग नहीं करो, द्वेष नहीं करो, मोह नहीं करो । समताभाव उदासीन परिणाम रखो।
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पहिले से ही पशु, पक्षी, स्त्री, बालक आदि से रहित शुद्ध स्थान को देखकर सामायिक में बैठो। पुनः कोई विघ्न आ जाये, वज्रपात भी हो जाये, तो सामायिक काल में सौम्य भावों से सहन करो। आर्तध्यान, रौद्रध्यान को मन में मत आने दो। धर्मध्यान में धैर्य समतापूर्वक चित्त लगाये रक्खो। ध्यान दो-चार मिनट ही करो, अधिक समय तक एकाग्र चित्त करने से शारीरिक क्षति उठानी पड़ेगी। कोरा अविचारित साहस क्लेश कर हो जाता है। आचार्यों ने अन्तर्मुहर्त काल तक ही ध्यान लगाना बताया है उत्तमसंहननवाले पुरुष भी अंतर्मुहर्त से अधिक ध्यान नहीं लगा सकते। हाँ जाप्य, भावना या स्तोत्र पाठ करने में समय अधिक लगाओ। दो घड़ी में बीस-पच्चीस बार ध्यान लगाने के लिये ३५, १६, ६, ५, ४, २, १ अक्षरों के मंत्र हैं। णमोकार मंत्र में पैंतीस अक्षर हैं।
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'अर्हत् सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः ' इसमें सोलह अक्षर हैं।
'ऊँ नमः सिद्धेभ्यः' में छह अक्षर हैं। 'अ सि आ उ सा' में पाँच अक्षर हैं।
'अरहंत', 'सिद्ध', ऊँ इनमें चार, दो और एक अक्षर हैं । और भी अनेक छोटे बड़े मंत्र हैं, उनका जाप्य करना चाहिये ।
सहस्रनाम के एक जहार आठ नामों का भी जाप कोई-कोई करते हैं, जैसे (१) ऊँ ह्रीं श्रीमते नमः (२) ऊँ ह्रीं वृषभाय नमः इत्यादि नामों से पहले ऊँ ह्रीं लगाकर चतुर्थी विभक्ति के साथ नमः पद लगा दिया जाये, तो वह मंत्र बन जाता है। यों बड़े शुद्ध भावों से सामायिक करते समय सातिशय पुण्यबंध होता है, तथा साथ ही प्रशस्त संवर निर्जरा भी होती है।
श्रावक को काम्य मंत्र, वशीकरण मंत्र, जयपराजय के रागद्वेषवर्धक मंत्रों के झगड़ों में नहीं फँसना चाहिये । सच्चा गुरु नहीं मिलने से उल्टा अनिष्ट फल हो जाता है पागलपन या मरण भी हो सकता है। अतः क्वचित् कदापि काले नागों से मत खेलो। शुद्ध मंत्र ही वीतराग भावों को बढ़ाते हैं, चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति करना है, अन्य कुछ नहीं ।
निर्जरा
जिन-दर्शन, पूजन, तीर्थ-यात्रा, दान, प्रतिष्ठा कराना, जिनालय बनवाना, आदि शुभ क्रियाओं से श्रावक को केवल पुण्यबंध ही नहीं होता, किंतु अंसख्यातगुणी निर्जरा और संवर भी होते हैं। ऐसा गोम्मटसार, तत्वार्थ सूत्र आदि मई 2009 जिनभाषित 17
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