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नग्नता : पारदर्शिता
दिगम्बर साधु को लेकर लोगों में भ्रान्तियाँ हैं। लोग हुई नहीं है। सोचते हैं कि समाज में कोई और तो नग्न नहीं रहता, तो फिर ये क्यों? ऐसे लोगों को कम से कम इतना विचार करना चाहिए कि आखिर क्या इस आदमी के नग्न होने का क्या कारण है? क्या इसके पास वस्त्र नहीं है या बेघर है, विक्षिप्त है- आखिर क्या कारण है? वे जब विचार करेंगे तो जानेंगे नग्नता मजबूरी नहीं है, बल्कि एक समृद्ध जीवन दर्शन है। स्वेच्छा से, ज्ञानपूर्वक इन्द्रियविजय की सूचना है। नग्नता - दिगम्बर है, एक जीवनदर्शन है, मुक्ति की ओर ले जानेवाली है। दिगम्बर अपरिग्रह से शुरू होता है, यह रागद्वेष के परिहार से शुरू होता है। वास्तव में इन्द्रियजयी होना ही नग्न होना है । इन्द्रियजयी होना यानि इन्द्रियों का निग्रह करना। यदि सही मायने में कोई वगैर इन्द्रिय के निग्रह किए नग्न होता है, तो वह दिगम्बर नहीं कहलायेगा | जिसने अपने विचारों पर विजय नहीं पाई, वह व्यक्ति अकेले नग्न होकर दिगम्बरत्व को थोड़े ही प्राप्त कर सकता है। दिगम्बर यानि जिसने दिशाओं को ही अपना वस्त्र बना लिया है। ओढ़ना-बिछाना जिसकी दिशायें हो गई हैं। जैनागम में दिगम्बरत्व को यथाजातरूप भी लिखा गया है। जैसा जन्मा, जैसा शिशुवत्, निर्विकार और निश्छल जिसका चित्र है- बाहर भीतर, वह दिगम्बर मुनि है । इस तरह की नग्नता, अपरिग्रह का चरम विकास है । अपरिग्रह का विकास, सर्वोत्तम विकास है। नग्न हो जाना यानि इस अवस्था में सारी आसक्तियाँ टूट जाती हैं, यहाँ तक कि शरीर तक की असक्ति टूट जाती है। शरीर के प्रति निर्ममत्व होकर उसका उपयोग केवल साधन के रूप में किया जाता है । इसका मतलब यह नहीं कि शरीर से कोई द्वेष है ।
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वहीं दूसरी और सामान्य नग्नता अभद्र दिखाई देती है, लेकिन साधु की नग्नता अभद्र नहीं दिखती है । यहाँ तक की वस्त्र पहने हुए व्यक्ति भी अपने आँख के इशारे से किसी के मन को विकृत दूषित कर सकता है, लेकिन निर्वस्त्र अपनी सौम्य मुद्रा द्वारा दूसरों को विरक्त होने का संदेश देता है। दिगम्बर मुनि की नग्नता आईना है अपने आपको देखने का स्वयं को कसौटी पर डालने का, कि इस तरह का भी अर्थात् दिगम्बर बनना एक निर्मल आरसी बनने जैसा है। दिगम्बर मुनि दर्पण तब बन जाता है, जब उसे कोई देखे तो उसका 'दर्प' ओले की तरह गल जाए । और जब कोई यह दर्पण देखे और फिर भी उसमें कोई 'दर्प' अथवा 'कन्दर्प' शेष रह जाए, 'दर्प' अथवा 'कन्दर्प' शेष रह जाए, तो भारी गड़बड़ है। 'कन्दर्प' यही प्रतीति देता है कि विकार कहीं बचे हुए हैं, असल में दर्पण में देखने की योग्यता भी चाहिए ।
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नग्नता की लम्बी परम्परा है। वेदों, उपनिषदों में इसके बारे में लिखा गया है 'परमहंस' और 'जाबाल' में भी इसके बारे में आया है। परमहंस उपनिषद् के एक अंश में कहा गया है आत्मा के अन्वेषण के लिए हे बाह्मण! तुम्हें इतना तो करना ही पड़ेगा यानि यथाजात होना होगा । यथाजात निःसंदेह नग्नता का पर्याय शब्द है। यथाजात यानि तन-मन से नग्न होना यानि अत्यंत स्वाभाविक होना
है।
नग्नता स्वाभाविकता है, प्राकृतिक है। एक दिगम्बर मुनि के साथ नग्नता सहज व स्वाभाविक है, ऊपर से थोपी 10 मई 2009 जिनभाषित
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मुनि श्री क्षमासागर जी
मुगलों के जमाने में कहते हैं कि अबुल कासिम गिलानी और सरमद इन दोनों ने नग्नता को अंगीकार किया था, तब औरंगजेब ने उन दोनों से कहा कि आप वस्त्र पहन लीजिये । तब सरमद ने उससे कहा, "जिसने तुझे बादशाहत का ताज पहनाया, उसी ने हमें यह लिवास भी दिया है। खुदा ने जिस किसी में भी एब पाया, तो उसे वस्त्र पहिनाये और जिसमें कोई एब नहीं पाया उसे नग्नता का लिबास दे दिया । "
नग्नता और संयम का अटूट बंध है। संयम यानि आत्मानुशासन ! वस्तुतः जिसने इन्द्रिय और मन को निरन्तर वशीभूत किया है या इन्हें वश में करने के लिए अनवरत उत्सुक रहा है वही नग्न हुआ है या हो सकता है। संयम को यादि माइनस कर दें, तो नग्नता अश्लीलता बन जाएगी और यदि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को प्लस कर दें, तो नग्नता मोक्ष की ओर ले जाएगी। नग्नता के साथ वीतरागता का जुड़ना मानवता को धन्य करता है। जैनमुनि में नग्नता के साथ वीतरागता का मणिकांचन योग होता है। नग्नता का अपना सौन्दर्य होता है। और इस सौन्दर्य को देखना है, तो गोमटेश बाहुबली में देखना चाहिए।
नग्नता स्वाभाविकता से आवरण हटाने की प्रक्रिया है। यह मौलिकताओं का आध्यात्मिक मौलिकताओं का अनावरण है।
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