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सत्-युग और कलियुग
आचार्य श्री विद्यासागर जी
मछली और माटी के संवाद के माध्यम से महाकवि की लेखनी द्वारा
सत्-युग और कलियुग के स्वरूप का सटीक उद्घाटन
यहाँ पर इस युग से यह लेखनी पूछती है कि क्या इस समय मानवता पूर्णतः मरी है? क्या यहाँ पर दानवता आ उभरी है....? लग रहा है कि मानवता से दानवत्ता कहीं चली गई है? और फिर दानवता में दानवत्ता पली ही कब थी वह?
'वसुधैव कुटुम्बकम्' इस व्यक्तित्व का दर्शनस्वाद-महसूस इन आँखों को सुलभ नहीं रहा अब...! यदि वह सुलभ भी है तो भारत में नहीं, महा-भारत में देखो!
भारत में दर्शन स्वारथ का होता है। हाँ-हाँ! इतना अवश्य परिवर्तन हुआ है
कुछ और खोल दो
इसी विषय को, माँ!' सो मछली की प्रार्थना पर माटी कुछ सार के रूप में कहती है
सुनो बेटा! यही कलियुग की सही पहचान है जिसे खरा भी अखरा है सदा और सत्-युग तू उसे मान बुरा भी
'बूरा'-सा लगा है सदा। पुनः बीच में ही निवेदन करती है मछली कि विषय गहन होता जा रहा है जरा सरल करो ना! सो माँ कहती है समझने का प्रयास करो, बेटा! सत्-युग हो या कलियुग बाहरी नहीं भीतरी घटना है वह सत की खोज में लगी दष्टि ही सत्-युग है, बेटा! और असत्-विषयों में डूबी आ-पाद-कण्ठ सत् को असत् माननेवाली दृष्टि स्वयं कलियुग है, बेटा!
कि
'बसुधैव कुटुम्बकम्' इसका आधुनिकीकरण हुआ है वसु यानी धन-द्रव्य धन ही कुटुम्ब बन गया है धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।
अब मछली कहती है माटी से'कुछ तुम भी कहो, माँ!
मूकमाटी (पृष्ठ ८१-८३) से साभार
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