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नरक, स्वर्ग तथा पाप पुण्यरूप कर्मानुसार उनमें उत्पत्ति | कर चुके हैं। मानता है, यह सर्वविदित है। अतः व्याकरण के अनुसार कुछ लोग कहते हैं कि जैनधर्म परमात्मा को जैनधर्म आस्तिक धर्म है।
सृष्टिकर्ता नहीं मानता, इसलिये वह नास्तिक है। पर कोष (Dictionary) से शब्दों के अर्थ का ज्ञान | जैसा कि पहिले स्पष्ट किया जा चुका है कि परलोक होता है। 'शब्दस्तोमहानिधि' प्र. १८५ पू., पृष्ठ ६३४ | न माननेवाला नास्तिक कहलाता है, ईश्वर को सृष्टिकर्ता अभिधानचिन्तामणि, काण्ड ३ श्लोक ५२६ आदि सर्व | न माननेवाला नहीं। नास्तिक शब्द यौगिक शक्ति से भी सुप्रसिद्ध कोष उपर्युक्त अर्थ को ही बताते हैं। | उसका वाचक नहीं है। फिर प्रमाणों से भी ईश्वर सृष्टिअभिधानचिन्तामणि में नास्तिक के पर्यायवाची इस प्रकार | कर्ता नहीं ठहरता। उसे सृष्टिकर्ता मानने पर अनेक दोषों बतलाये हैं- 'बार्हस्पत्यः, नास्तिकः, चार्वाकः, लौकायतिकः | का प्रादुर्भाव होने से उसमें ईश्वरत्व नहीं रह सकता। इति तन्नामानि।' अर्थात् वार्हस्पत्य, नास्तिक, चार्वाक और | आप्तपरीक्षा, प्रमेय कमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री आदि जैनलौकायतिक ये चार नास्तिक के नाम हैं। इस प्रकार | ग्रन्थों में इसका सयुक्तिक विवेचन है। इसके अतिरिक्त कोष के अनुसार जैनधर्म नास्तिक नहीं है। सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष की सत्ता स्वीकार कर
किसी भी दार्शनिक विद्वान् ने जैनधर्म को नास्तिक | सृष्टि रचना का कार्य प्रकृति द्वारा होना बताया है। मीमांसक नहीं बताया है। नास्तिक के सिद्धान्त भी जैनधर्म को | भी ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानते, पर फिर भी विद्वानों मान्य नहीं। जैन शास्त्रकारों ने प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री ने उनको नास्तिक नहीं लिखा, क्योंकि जैसा पहले बताया आदि ग्रन्थों में अन्य मतों के साथ नास्तिक मत का | जा चुका है, इस बात का आस्तिक-नास्तिक से कोई भी सयुक्तिक और जोरदार खण्डन किया है। सम्बन्ध ही नहीं है।
यद्यपि मनुस्मृतिकार ने 'नास्तिको वेदनिन्दकः' श्रीमद्भगवद्गीता में आया है किअर्थात् जो वेदों को नहीं मानता वह नास्तिक है, ऐसा न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। . लिखा है, पर यह उनकी अपनी कल्पना है। यदि ऐसा न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥ माना जाय तो आज मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, पारसी, नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। यहूदी आदि के साथ स्वयं को भी नास्तिक कहलाने अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यति मानवः॥ से नहीं बच सकते। क्योंकि ऋक्-यजुः-साम और अथर्व | अर्थात् ईश्वर संसार के कर्तापने को या कर्मों को इन चारों वेदों में से एक वेद माननेवाले, बाकी ३ वेदों | नहीं बनाता है और न कर्मफल के संयोग की व्यवस्था को नहीं मानते, २ वेद माननेवाले द्विवेदी बाकी दो वेदों | ही करता है, मात्र स्वभाव काम करता है। परमात्मा न को नहीं मानते तथा त्रिवेदी बाकी एक वेद को नहीं | किसी को पाप का फल देता है न पुण्य का। अज्ञान मानते। वे भी नास्तिक होंगे। विभिन्न टीकाकार अलग- | से ज्ञान ढका है, इसी से जगत् के प्राणी मोहित हो अलग अर्थ लगाकर दूसरे के अर्थ को स्वीकार नहीं | रहे हैं। करते। सनातनधर्मी वेदों में हिंसा बतानेवाले महीधर भाष्य | ऐसी ही मान्यता जैनधर्म की भी है। यह मानता को ठीक बताते हैं, पर आर्यसमाजी सायण और महीधर | है कि जीव अपने ही भावों से शुभाशुभ कर्म बाँधते को नहीं मानते।
हैं तथा स्वयं उनका फल भोगते हैं। जैनधर्म ईश्वर की फिर वेद को न माननेवालों को नास्तिक कहने | सत्ता को अस्वीकार नहीं करता, बल्कि वह प्रत्येक आत्मा का दूसरों पर अपनी बात लादने से अधिक कोई मूल्य | में ईश्वरत्व शक्ति मानता है। नहीं। जब अलग अलग धर्म हैं, तो एक के ग्रन्थों को | इतिहास पर दृष्टि डालने से भी यही बात सिद्ध दूसरा मान्यता की कोटि में कैसे रख सकता है। होती है। किसी भी इतिहासकार ने जैनधर्म को नास्तिक
वेद को भी ईश्वरकृत स्वीकार नहीं किया गया। | नहीं लिखा, बल्कि सुप्रसिद्ध इतिहासकारों ने इसका जोरदार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बहुत समय पहले अपनी | खण्डन किया है। 'इतिहास तिमिरनाशक' के लेखक राजा साहित्यसीकर पुस्तक में इस बात का स्पष्ट विवेचन | शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने लिखा है कि "चार्वाक का किया है। अब तो अनेक साहित्यकार इस बात को स्पष्ट | जैन से कुछ सम्बन्ध नहीं है। जैन को चार्वाक कहना
6 दिसम्बर 2008 जिनभाषित
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