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________________ आस्तिक-नास्तिक दिल्ली भारत धर्मप्राण देश है । यहाँ समय-समय पर अनेक । वाले लोग यह भली भाँति जानते हैं कि प्रचार का प्रभाव धर्मों की उत्पत्ति होती रही है। यों तो प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के समय में ही ३६३ मतों की उत्पत्ति बतलाई गई है, परन्तु भगवान् महावीर के समय में प्रचलित धर्मों को दो प्रधान श्रेणियों में रखा जा सकता है । १. वैदिक और २. अवैदिक ( श्रमण ) । वैदिक-वेद को मानने वाला धर्म और वेद को न माननेवाला अवैदिक, जिसके अन्तर्गत मुख्यतः बौद्धों और जैनों को रखा जाता था। महावीर के समय भारत में वेदों का सर्वत्र प्रचार था । यत्र तत्र यूपों ( याज्ञिक - स्तम्भों ) की भरमार थी, तथा वेदविहित हिंसा अधर्म नहीं मानी जाती थी। लोग हिंसामयी विधि-विधानों से घबरा गये थे। उस समय महावीर स्वामी. ने इस मान्यता का खण्डन कर अहिंसा का प्रचार किया । हिंसापूर्ण क्रियाकाण्ड को अधर्म बताया तथा लोगों को भी जीवन में अहिंसा के पालन की प्रेरणा दी। वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् बालगंगाधर तिलक ने इस बात को स्वीकार किया है कि यज्ञों से हिंसा को दूर करने का श्रेय महावीर स्वामी को है। बौद्धधर्म के संस्थापक महात्मा गौतम बुद्ध भी उसी समय हुए और उन्होंने भी हिंसापूर्ण विधि-विधानों का खण्डन किया, पर वे हिंसा का पूर्ण त्याग न करा सके। फलस्वरूप आज भी श्रीलंका, वर्मा, चीन, जापान आदि बौद्ध धर्मानुयायी देश मांसाहारी हैं। धार्मिक क्रियाकाण्डों में हिंसा का विरोध करनेवाले महावीर और गौतम बुद्ध के अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी। छोटे-बड़े, गरीब-अमीर तथा वैभवशाली राजागण भी उनकी छत्रच्छाया में आये और वातावरण ऐसा बदला कि धीरे-धीरे भारत से याज्ञिक हिंसा का नाम निशान ही उठ गया, पर उसमें ही धर्म माननेवाले लोग इस बात को सहन न कर सके और उन्होंने अहिंसा के विरुद्ध लोगों को भड़काना प्रारम्भ किया तथा जैन और बौद्धों को 'नास्तिक' कहकर बदनाम किया जाने लगा उस समय 'हस्तिना पीड्यमानेऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्' अर्थात् हाथी के पैर के नीचे कुचले जाने का अवसर आने पर भी जैनमंदिर में नहीं जाना चाहियें, जैसी बातें प्रचलित हुईं। । समय की गतिविधियों को गम्भीरता से समझने Jain Education International पं० हीरालाल जैन - 'कौशल', अवश्य पड़ता । प्रचार में विरोधी के विषय में अनेक असंगत और तथ्यहीन बातें कही जाती हैं, पर वे भी अपना प्रभाव डालती हैं तथा लोगों के मन में अनेक सन्देह उत्पन्न कर देती हैं। जैन व बौद्धों के विरुद्ध किया जानेवाला यह प्रचार भी व्यर्थ नहीं गया। धीरेधीरे उनके प्रति लोगों में अश्रद्धा उत्पन्न होने लगी और कई जगह तो वह घृणा की सीमा तक पहुँच गई। उसके पश्चात् अनेक कारणों से आठवीं शताब्दी के लगभग भारत में बौद्धधर्म का ह्रास हो जानेपर विरोध में सिर्फ जैनधर्म ही रह गया। उस समय उस पर अनेक अमानुषिक अत्याचार तक किये गये तथा यत्र तत्र उसके अनुयायियों का तिरस्कार किया गया। यद्यपि जैनधर्म अपनी लोकोत्तर विशेषताओं के कारण आज भी अपना मस्तक ऊँचा किये हुए है, भारत की संस्कृति पर उसका पर्याप्त प्रभाव है। वे पुरानी बातें लोग अब भूल रहे हैं, पर कभीकभी यत्र-तत्र वह बात दृष्टिगोचर हो जाती है । 'नास्तिक' शब्द के अर्थ को न जानकर बहुत से लोग अपनी पिछली धारणा के अनुसार जैनियों को नास्तिक ही समझते हैं और कह देते हैं । अतः आस्तिक और नास्तिक का क्या अर्थ है, यह जान लेना आवश्यक है। व्याकरण से ही शब्दों की सिद्धि होती है। वैय्याकरणों में शाकटायन अति प्राचीन हैं। वे इस शब्द की इस प्रकार सिद्धि करते हैं- 'देष्टिकास्तिक-नास्तिक' ( ३-२-९१) वृतिकार श्री अभयचंद सूरि ने इसका अर्थ किया है - 'अस्ति मतिर्यस्य आस्तिकः तद्विपरीतो नास्तिक: ।' अर्थात् परलोक, पुण्यपाप आदि को माननेवाला आस्तिक और उससे विपरीत विचारवाला नास्तिक ' आचार्य पाणिनि जो सबसे बड़े वैय्याकरण माने जाते हैं, अपने ग्रंथ में लिखते हैं कि 'आस्तिनास्तिदिष्टंमतिः ' ( ४-४-९०) कौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित ने इसकी वृत्ति लिखी है 'तदस्त्येव परलोक इति आस्तिकः । नास्तीति मतिर्यस्य सः नास्तिकः ।' अर्थात् परलोक को माननेवाला व्यक्ति आस्तिक और न माननेवाला नास्तिक है। हेमचन्द्राचार्य ने अपने सिद्धहेमशब्दानुशासन नामक प्रसिद्ध व्याकरण-ग्रन्थ में भी यही अर्थ माना है। जैनधर्म For Private & Personal Use Only दिसम्बर 2008 जिनभाषित 5 www.jainelibrary.org
SR No.524334
Book TitleJinabhashita 2008 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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