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___ इन अत्यन्त मर्मस्पर्शी पद्यों के कर्ता आचार्य ने भोग की नयी परिभाषा प्रस्तुत की है। उन्होंने विषयसेवन के भोग शब्द से अभिहित करने को अनुचित बतलाया है। उनकी दृष्टि में यह भोग नहीं है, अपितु दुःख का प्रतीकार मात्र है, दूसरे शब्दों में यह क्षुधादिरोगजन्य पीड़ा का अन्न-पानदिरूप औषधियों से केवल अस्थायी उपचार करना है। इससे सिद्ध होता है कि उक्त पद्यकर्ता आचार्य के अनुसार आत्मसुख का अनुभव ही भोग है, जो क्षुधादिरोगजन्य पीड़ाओं के अस्थायी उपचार से नहीं, अपितु क्षुधादिरोगों के ही उन्मूलन से संभव है। क्षुधादि रोगों के उन्मूलन से जो मोक्ष-अवस्था प्राप्त होती है, वही सच्चा सुख है, वही वास्तव में भोग है। इसे ही आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड-श्रावकाचार में निःश्रेयस कहा है
जन्मजरामयमरणैः शौकेर्दुःखैर्भयैश्च परिमुक्तम्।
निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम्॥ १३१॥ अनुवाद-"जन्म, जरा, रोग, मरण, शोक, दु:ख और भय से रहित जो निर्वाणरूप शुद्धसुख है, वह निःश्रेयस कहलाता है।"
रतनचन्द्र जैन
साधना के सिन्धु में
मनोज मधुर
गीत के तुमको मिलेंगे ठाँव
साधना के सिध में गोते लगाओ तो।। कलरवों में लय घुली है गीत बिखरा तितलियों में पवन बदली चाँद सूरज तार सप्तक बिजलियों में। जग उठेंगे गोपियों के गाँव बांसुरी कान्हा सरीखी तुम बजाओ तो।
जड़ तना फल फूल पत्तों सहित इनको ढूढ़ लाओ गंध सोंधी नदी पनघट खेत की इनमें मिलाओ चल पड़ेंगे अक्षरों के पाँव हाथ में तुम गीत का परचम उठाओ तो।
खनक रुनझुन गुनगुनहाठ भ्रमर के अनुराग में है गीत मौसम कूल पर्वत नदी झरने बाग में हैं। गीत ही देगा सुनहरी छाँव होंठ पर तुम गीत की सरगम सजाओ तो।
गीत रमते शंख वीणा बांसुरी शहनाइयों में गीत अंतर चेतना की जा बसे गहराइयों में। हों विफल हमलावरों के दाँव गीत को तुम शीश पर अपने बिठाओ तो।
सी. एस. १३, इन्दिरा कॉलोनी बाग उमराव दूल्हा, भोपाल म.प्र.
खैर, खून, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीति, पदपान। रहिमन दाबे ना दबें, जानत सकल जहान॥ १३१॥
4 दिसम्बर 2008 जिनभाषित
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