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मन्येत भोगा इति तानि योऽज्ञः कुर्वीत सोऽन्नादिषु भोगसंज्ञा ॥ ११॥ यतश्च नैकान्तसुखप्रदानि द्रव्याणि तोयप्रभृतीनि लोके । अतश्च दुःखप्रतिकारबुद्धिं तेषु प्रकुर्यान्न तु भोगसंज्ञाम् ॥ १२ ॥ क्षुधाभिभूतस्य हि यत्सुखाय तदेव तृप्तस्य विषायतेऽन्नम् । उष्णार्दितः काङ्क्षति यानि चेह तान्येव विद्वेषकराणि शीते ॥ १३ ॥ अनुवाद- 'नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गतियों में एकान्तरूप से दुःख ही है, सुख की अनुभूति तो क्वचित्, कदाचित् कथंचित् ही होती है। एक जीव नाना जन्मों में भ्रमण करते हुए जो अपरिमित दुःख भोगता है, उसका अनन्तवाँ भाग भी सुख, अनादिकाल से प्राप्त किये गये सभी शरीरों में उपलब्ध नहीं होता, तब एक जन्म में जीव सुख का कितना भाग भोग सकता है? जैसे वन में एक अत्यन्त भयभीत एवं बेचारा हिरण सब ओर से सशंकित रहता है, वैसे ही जीव भी इस संसार में सदा भयभीत रहता है । जब एक प्राणी के द्वारा अनन्तभवों में प्राप्त किये गये सुख की यह स्थिति है, तब एक भव में प्राप्त होनेवाला सुख कितना होगा? यह अत्यन्त अल्प सुख भी दुःख के समुद्र में गिरकर दुःख ही हो जाता है, जैसे मेघों का मीठा जल भी लवण समुद्र में गिरकर खारा हो जाता है।
“और जीव संसार में जिसे सुख मानता है, वह वास्तव में सुख नहीं है, अपितु पूर्व में उत्पन्न हुए दुःख का प्रतीकार मात्र है। पूर्व में यदि दुःख की उत्पत्ति न हो, तो उसका निरोध करने के लिए किये गये विषयसेवन से सुख की अनुभूति नहीं हो सकती। प्यास की पीड़ा मिटाने के लिए ही पानी पिया जाता है। भूख की वेदना से छुटकारा पाने के लिए भोजन किया जाता है। हवा, पानी और धूप के कष्ट से बचने के लिए मनुष्य घर में निवास करता है। नग्न रहने से जो लज्जा उत्पन्न होती है, उससे बचने के लिए वस्त्र पहनता है। शीत की वेदना का निरोध करने के लिए चादर ओढ़ता है तथा थकावट दूर करने के लिए शय्या का उपयोग करता है। मार्ग में चलने के श्रम से बचने के लिए सवारी का सहारा लेता है। थकान, पसीना, और मल से सम्पृक्त होने पर जो अप्रिय वेदन होता है, उसके परिहार के लिए स्नान करता है। खड़े रहने से जो कष्ट होता है, उससे बचने के लिए आसनरूपी औषध ग्रहण करता है । दुर्गन्ध की पीड़ा से मुक्ति के लिए सुगन्ध का सेवन करता है। शरीर की अशोभनीयता से उत्पन्न पीड़ा के परिहार हेतु आभूषण पहनता है। अरति अर्थात् मन के ऊबने से उत्पन्न दुःख को दूर करने के लिए नृत्य-गीत आदि कलाओं का दर्शन - श्रवण करता है।
"इस प्रकार विचार करने पर ज्ञात होता है कि देव और मनुष्यों के इस विषयसेवन को जो भोग कहा जाता है, वह वास्तव में भोग नहीं है, अपितु दु:ख निरोध के लिए किया जानेवाला औषधसेवन है। जैसे रोगी व्यक्ति रोग की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए औषधि का सेवन करता है, वैसे ही मनुष्य - क्षुधादिरोगों की वेदना से छुटकारा पाने के लिए भोजन आदि औषधि ग्रहण करता है। जो पित्त के प्रकोप से शरीर के जलने पर शीतपदार्थों के सेवन को भोग मानता है, वही अज्ञानी अन्नादि के सेवन को 'भोग' नाम से अभिहित करता है । किन्तु, अन्न, जल आदि पदार्थ एकान्तरूप से सुख नहीं देते। जो अन्न भूख से पीड़ित को सुख देता है, वही अन्न पेटभरे व्यक्ति को विष के समान लगता है। गर्मी से पीड़ित मनुष्य जिन पदार्थों की इच्छा करता है, शीत से पीड़ित मनुष्य उन्हीं से द्वेष करता है। इसलिए इन पदार्थों को दुःख का प्रतीकार करनेवाला अर्थात् क्षुधादि रोगों की पीड़ा का उपचार करनेवाला ही कहना चाहिए, 'भोग' शब्द से अभिहित नहीं करना चाहिए। "
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दिसम्बर 2008 जिनभाषित 3
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