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________________ सम्बोधित किया है और उसके पद के अनुसार यथायोग्य विनय भी लिखी है, तथा सब से अन्त में आपका शुभचिन्तक - गणेश वर्णी लिखा है। पत्र किस स्थान लिखा है और किस तिथि को लिखा है? इस सब का भी उल्लेख है। इतना ही नहीं, अपितु जिन स्थानों के लोगों को पत्र लिखे हैं, उन स्थानों के अन्य श्रेष्ठियों, विद्वानों अथवा त्यागियों को भी पत्र के अन्त में योग्य विनय कहने का निर्देश दिया है। पत्रों के मध्य में शास्त्रों से उद्धरण दिये तथा आवश्यकतानुसार सूक्तियों और संक्षेप में कथाओं का भी प्रयोग किया है। जैन सिद्धान्तों को दैनिक जीवन में कैसे आत्मसात किया जाये? इसके लिये आवश्यक सूत्रों, बिन्दुओं का पत्रों के मध्य में उल्लेख है। मुनि श्री क्षमासागर जी श्रेष्ठ मनीषी, संत - कवि, चिंतक, प्रभावी प्रवचनकार, मौलिक-साहित्य - स्रष्टा, वैज्ञानिक और अन्वेषक हैं। उन्होंने जन-साधारण का ध्यान रखकर विषय को अत्यन्त सरल भाषा में इस तरह प्रस्तुत 30 दिसम्बर 2008 जिनभाषित ये वे पत्र हैं जो डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी को विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध हो गये थे। अभी पूज्य वर्णी जी द्वारा लिखे गये सैकड़ों पत्र लोगों के संग्रहों, फाइलों में दबे होंगे, जिनका संकलन, सम्पादन एवं प्रकाशन अपेक्षित है, जिससे वर्णी जी द्वारा समाज के नाम लिखे गये दस्तावेज सामने आ सकें। अच्छा तो यह हो कि इन पत्रों और उनके अन्य पत्रों को आधार बनाकर एक शोध-प्रबन्ध तैयार कराया जाये, जिससे तत्कालीन अनेक धार्मिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों और तथ्यों का उद्घाटन हो सके। Jain Education International ग्रन्थसमीक्षा 'कर्म कैसे करें?' प्रवचन संग्रह - मुनिश्री क्षमासागर जी, प्रकाशक - मैत्री समूह । पृष्ठ - XV - १९२ । मूल्य- रु. ६०/ संसारी जीव अनादिकाल से कर्म- संयुक्त दशा में रागी -द्वेषी होकर अपने स्वभाव से च्युत होकर संसारपरिभ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमण का मुख्य कारण अज्ञानतावश कर्म-आस्रव और कर्मबंध की प्रक्रिया है, जिसे हम निरन्तर करते रहते हैं । कर्मबंध की यह प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है और उसे पूर्णरूप से जान पाना अत्यन्त कठिन है, लेकिन यदि हमें केवल इतना भी ज्ञान हो जाए कि किन कार्यों के करने से हम अशुभ कर्मों का बंध कर रहे हैं, तो सम्भव है, हम अपने पुरुषार्थ को सही दिशा देकर शुभ कर्मों के बन्ध का प्रयास कर सकते हैं। सन 2002 के वर्षायोग में मुनि श्री ने जयपुर में अपने 18 प्रवचनों से जनसाधारण को कर्मसिद्धान्त के जैनदर्शन में प्रतिपादित विषयों से अवगत कराने हेतु सरल भाषा में उन परिणामों को स्पष्ट किया है जिनके कारण हम अज्ञानता से अशुभ कर्मों का बंध करते रहते हैं। उन प्रवचनों को इस पुस्तक में सम्पादित किया गया है । प्रोफेसर एवं अध्यक्ष : जैन-बौद्धदर्शन विभाग संस्कृतविद्या - धर्मविज्ञान सङ्काय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी । किया है कि सभी को कम से कम इस बात का ज्ञान हो कि उन्हें अपने दैनिक कार्य-कलापों में क्या सावधानी रखनी है, अपने पुरुषार्थ को क्या दिशा देनी है, जिससे अशुभ से बचकर शुभ कार्यों मे प्रवृत्ति बढ़ती जाये। भाषा की सरलता का इससे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन प्रवचनों में मुनिश्री ने एक बार भी कहीं कर्मों के उदय, उदीरणा, संक्रमण, अपकर्षण, उत्कर्षण, निधत्ति, निकाचित जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया है, क्योंकि जनसाधारण इनके अर्थों से भलि-भाँति परिचित नहीं होता। उन्होंने तो प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग आदि की भी चर्चा नहीं की है, उनका उद्देश्य तो जनसाधारण को उस प्रक्रिया से अवगत कराना मात्र प्रतीत होता है जिससे वे अशुभ कर्म के आस्रव-बंध से बचने का प्रयास करें। For Private & Personal Use Only जनसाधारण के लिये यह प्रवचन संग्रह अत्यन्त उपयोगी है। पुस्तक का गेट-अप, छपाई आदि अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक है । पुस्तक का मूल्य भी अल्पतम रखा गया है।' मैत्री - समूह ने इन प्रवचनों को पुस्तक रूप में प्रकाशित कर समाज का कल्याण किया है, इसके लिये वह बधाई का पात्र है। समीक्षक - एस. एल. जैन, भोपाल, म.प्र. www.jainelibrary.org
SR No.524334
Book TitleJinabhashita 2008 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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