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________________ जीव मात्र के प्रति कल्याण की भावना उनके अन्तरङ्ग । पदार्थों का उपयोग किया जो धनाढ्यों को ही सुलभ को प्रतिबिम्बित करती है। नवनीत से भी अधिक कोमल | थे। केवल तुमने यह अति अनुचित कार्य किया, किन्तु और निर्मल हृदय की झाँकी उनके सार्वजनिक जीवन | तुम्हारे आत्मा में चिरकाल से एक बात अति उत्तम थी में भी स्पष्ट दिखलाई देती थी। उनके संस्मरण आज | कि तुम्हें धर्म की दृढ़ श्रद्धा और हृदय में दया थी, भी जनसामान्य में बहुमात्रा में प्रचलित हैं। विद्वज्जन जब | उसका उपयोग तुमने सर्वदा किया। तुम निरन्तर दु:खी उन संस्मरणों को अपनी वाणी का विषय बनाते हैं, तो | जीव देखकर उत्तम से उत्तम वस्त्र तथा भोजन को देने लोग जहाँ उनसे चुटकुलों जैसी आनन्द की अनुभूति | में संकोच नहीं करते थे, यही तुम्हारे श्रेयोमार्ग के लिये प्राप्त करते हैं, वहीं विषय की गहराई का स्पर्श किये | एक मार्ग था। न तुमने कभी भी मनोयोग पूर्वक अध्ययन बिना नहीं रहते हैं। | किया, न स्थिरता से पुस्तकों का अवलोकन ही किया जिन्होंने पुज्य वर्णी जी को देखा, वे धन्य हो गये | न चारित्र का पालन किया और न तुम्हारी शारीरिक सम्पदा और जिन्होंने उनकी सङ्गति को प्राप्त किया, वे तर गये। चारित्र पालन की थी। तुमने केवल आवेग में आकर 'आपत्तियों से टक्कर लेना, विपत्ति में धर्म न छोड़ना, व्रत ले लिया। व्रत लेना और बात है और उसका दूसरों का दुःख दूर करने के लिये असहायों की | आगमानुकूल पालन करना अन्य बात है।--- सहायता, अज्ञानियों को ज्ञान और शिक्षार्थियों को सब इस जीव को मैंने बहुत कुछ समझाया कि तूं कुछ देना इनके (वर्णी जी के) जीवन का व्रत था।' पर पदार्थों के साथ जो एकत्वबुद्धि रखता है, उसे छोड़ डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी का यह कथन पूज्य वर्णी जी के | दे, परन्तु यह इतना मूढ है कि अपनी प्रकृति को नहीं सम्पूर्ण जीवन की एक झाँकी अथवा उनके सम्पूर्ण | छोड़ता, फलतः निरन्तर आकुलित रहता है। क्षणमात्र भी जीवनदर्शन को अत्यन्त संक्षेप में प्रस्तुत करता है। | चैन नहीं पाता। म पूज्य वर्णी जी ने कल्याण की भावना से जो पत्र | ईसरी, माघ शुक्ल 13, सं. 1999 'दूसरों को लिखे हैं, वे तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, किन्तु उन्होंने आपका शुभचिन्तक जो पत्र अपने को सम्बोधित करते हये लिखा है, वह गणेश वर्णी अत्यन्त मार्मिक है। आत्म-परीक्षण किंबा आत्म-साक्षात्कार स्वयं को लिखे गये इस पत्र से पूज्य वर्णी जी का ऐसा निदर्शन अन्यत्र दुर्लभ है। अपने को सम्बोधित की अपने प्रति कैसी दृष्टि थी? इसकी एक छोटी, किन्तु किये गये पत्र के कुछ अंश इस प्रकार हैं आत्म-निरीक्षणपरक झाँकी मिलती है। श्रीमान् वर्णी जी! योग्य इच्छाकार । प्रस्तुत कृति 'वर्णी पत्र सुधा' में पूज्य वर्णी जी बहुत समय से आपके समाचार नहीं पाये, इससे द्वारा जैनसमाज के जिन 34 संयमीजनों को लिखे गये चित्तवृत्ति सन्दिग्ध रहती है कि आपका स्वास्थ्य अच्छा | पत्रों का संकलन है, उन सभी संयमीजनों का पत्रों से नहीं है। सम्भव है आप उससे कुछ उद्विग्न रहते हों | पर्व संक्षेप में परिचय भी डॉ. नरेन्द्र विद्यार्थी ने दिया और यह उद्विग्नता आपके अन्तस्तत्त्व की निर्मलता को | है। पुनः प्रत्येक के नाम लिखे गये पत्रों को एक ही कृश करने में समर्थ हुई हो। यद्यपि आप सावधान हैं, स्थान पर संकलित कर दिया है. ऐसे शताधिक पत्रों परन्तु जब तक इस शरीर से ममता है, तब तक सावधानी का संकलन है-'वर्णी पत्र सुधा'। का भी ह्रास हो सकता है। आपने बालकपने से ऐसे ___ 'वर्णी पत्र सुधा' में पूज्य साधुवर्ग को लिखे गये पदार्थों का सेवन किया जो स्वादिष्ट और उत्तम थे। इसका 350 एवं साध्वीवर्ग को लिखे गये 119 पत्र- इस प्रकार मूल कारण यह था कि आपके पुण्योदय से श्री कुल 469 पत्रों का संग्रह है। इनमें पूज्य वर्णीजी द्वारा चिरौंजाबाई जी का संसर्ग हुआ। तथा श्रीयुत सर्राफ मूल- | मूल | स्वयं को सम्बोधित कर लिखा गया पत्र अत्यन्त महत्त्वचन्द्र का संसर्ग हुआ। जो सामग्री आप चाहते थे, इनके | पर्ण है. जिसका पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। द्वारा आपको मिलती थी। आपने निरन्तर देहरादून से | कुछ पत्र तो इतने लम्बे हैं कि वे अपने आप चाँवल मँगाकर खाये, उन मेवादि का भक्षण किया जो | में स्वतन्त्र आलेख हैं। वर्णी जी ने पत्रों के प्रारम्भ में, अन्य हीन पुण्य- वालों को दुर्लभ थे तथा उन तैलादि | जिसको पत्र लिखा गया है, उस व्यक्ति को ससम्मान दिसम्बर 2008 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524334
Book TitleJinabhashita 2008 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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