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________________ कुन्दकुन्द की दृष्टि में असद्भूत व्यवहारनय प्रो० रतनचन्द्र जैन अज्ञानियों में अनादिकाल से परद्रव्यों का कर्ता- | नहीं बन सकती। नय तो प्रमाण का अंश है, अप्रमाण हर्ता आदि होने का जो अध्यवसान या मिथ्या अभिप्राय | का नहीं। व्यवहारनय भी अज्ञान का अंश नहीं है, अपितु है (समयासार/गा. ८४, ९८, २४७-२७१), उसे आचार्य | श्रुतज्ञान का अवयव है। आचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्ट शब्दों कुन्दकुन्द ने में 'जीव कर्मों से बद्ध है' ऐसा कथन करने वाले असद्भूत एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण। | व्यवहारनय को 'श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयणिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं॥ | पक्षयोः' (आ.ख्या./स.सा./१४३) इन शब्दों में श्रुतज्ञान स.सा./८४| | का अवयव बतलाया है। कारण यह है कि असद्भूतइस गाथा में व्यवहारनय संज्ञा दी है और निश्चयनय व्यवहारनय निमित्त-नैमित्तिकादि यथार्थ सम्बन्धों पर के उपदेश द्वारा उसका प्रतिषेध किया है। इसलिए कुछ | आश्रित होता है। इन सम्बन्धों के आधार पर ही उसमें आधुनिक विद्वानों ने असद्भूत व्यवहारनय को अज्ञानियों | एक वस्तु पर दसरी वस्तु के धर्म का प्रयोजनवश आरोप का अनादिरूढ व्यवहार मान लिया है और उसे प्रमाण किया जाता है। इसलिए उसकी भाषा कैसी भी हो, जिस का अवयव मानने से इनकार कर दिया है। वे प्रतिपादित | धर्म की अपेक्षा उसका कथन होता है, उस धर्म का करते हैं कि असद्भूत व्यवहारनय वस्तुधर्म का निरूपण | ही प्रतिपादन उसका प्रयोजन होता है और उसी धर्म नहीं करता, मात्र एक वस्तु पर दूसरी वस्तु के धर्म | की अपेक्षा से वह सत्य होता है। जैसे कोई ज्ञानी पुरुष का आरोप करता है। उनकी यह मान्यता 'जयपुरतत्त्वचर्चा' | जीव को पुद्गल कर्मों का कर्ता कहता है, तो निमित्तभाव (२/४३६) में निम्नलिखित वक्तव्य से स्पष्ट होती है- | की दृष्टि से कहता है, उपादानभाव की दृष्टि से नहीं। "अब रहा असद्भूत व्यवहारनय सो उसका विषय | अतः निमित्तभाव की दृष्टि से यह कथन सत्य है। नय मात्र उपचार है। समयसार गाथा ८४ में पहले आत्मा में प्रयुक्तभाषा का आशय तद्गत अपेक्षा पर ध्यान देने को व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता | से स्पष्ट होता है। बतलाया गया है, किन्तु यह व्यवहार असद्भूत है, क्योंकि | । दूसरी बात यह है कि ज्ञानियों का अभिप्राय ही अज्ञानियों का अनादि संसार से ऐसा प्रसिद्ध व्यवहार है, | नय कहलाता है, अज्ञानियों का नहीं, क्योंकि ज्ञानियों के इसलिए गाथा ८५ में दूषण देते हुए निश्चयनय का | ही अभिप्राय में कथंचित्त्व रहता है, अज्ञानियों के अभिप्राय अवलम्बन लेकर उसका निषेध किया गया है।" | में नहीं। इसलिए अज्ञानियों के अभिप्राय को असद्भूत किन्तु यह मान्यता समीचीन नहीं है। सत्य यह व्यवहारनय नहीं कह सकते। अज्ञानियों का परद्रव्यों के है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहारनय संज्ञा देकर जीव | कर्ता-हर्ता होने का अभिप्राय निश्चय-निरपेक्ष होता है, के परद्रव्य-विषयक कर्तृत्वहर्तृत्वादि अभिप्राय को | इसलिए उनका यह अभिप्राय असद्भूत व्यवहारनय नहीं कथंचित् सत्य सिद्ध किया है, क्योंकि 'नय' शब्द कथंचित्त्व | कहला सकता, ज्ञानियों का निश्चय सापेक्ष होता है इसलिए का द्योतक है। उक्त अभिप्राय में कथंचित् अर्थात् असद्भूत व्यवहारनय संज्ञा पाता है। निमित्तनैमित्तिकभाव की अपेक्षा सत्यता है, किन्तु अज्ञानी असद्भूतनय की परिभाषा ही विवेकगर्भित है। उसे सर्वथा सत्य मानते हैं, इसलिए उनके सन्दर्भ में परिभाषा के अनुसार निमित्त और प्रयोजन होने पर अन्यन्त्र वह मिथ्या अभिप्राय है, किन्तु ज्ञानी उसे सर्वथा सत्य | प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोप असद्भतव्यवहारनय न मानकर कथंचित् सत्य मानते हैं, इसलिए उनके सन्दर्भ | | कहलाता हैमें वह व्यवहारनय है। ____“अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्_ 'नय' शब्द मिथ्या अभिप्राय या मिथ्या कथन का | भूतव्यवहारः। असद्भूत-व्यवहार एव उपचारः।"--- वाचक नहीं हैं, अपितु सापेक्ष कथन का वाचक है। | "मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते।" शशशृंग के समान सर्वथा असत् वस्तु नय का विषय | (आलापपद्धति)। 16 दिसम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524334
Book TitleJinabhashita 2008 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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