SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतः निमित्त और प्रयोजन दृष्टि में रखकर ही | का अज्ञान पुष्ट ही हो सकता है, क्षीण नहीं। आचार्य अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोप करना असद्भूत | कुन्दकुन्द ने असद्भूतव्यवहारनय से वस्तुस्वरूप के जो व्यवहारनय है। विमूढ़तापूर्वक ऐसा करना असद्भूत | निरूपण किये हैं उसके उदाहरण इस प्रकार हैंव्यवहारनय नहीं है। वह अज्ञानियों का ही अनादिरूढ़ जीवो न करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे। व्यवहार है। जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता॥ ___ निमित्त और प्रयोजन दृष्टि में रहने पर यह विवेक समयासार /गा.१०० बना रहता है कि वस्तु का जिस रूप में कथन किया ___अर्थात् जीव न घट का कर्ता है, न पट का, जा रहा है, वह उसका यथार्थ रूप नहीं है, अपितु उसके | न अन्य द्रव्यों का। उसके योग और उपयोग ही उनके निमित्तत्वादि धर्म की अपेक्षा उसे इस रूप में कहा जा | उत्पादक हैं और वह योगोपयोग का कर्ता है। रहा है। यह विवेक होने पर ही विवक्षित कथन असदभत । यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द ने जीव के योगोपयोग को व्यवहारनय कहलाता है। किन्तु, जब ऐसा विवेक नहीं | घटपटादि परद्रव्यों का निमित्तरूप से कर्ता कहा है, जिसे होता, अपितु वस्तु को वास्तव में वैसा ही समझा जाता । आचार्य अमृतचन्द्र ने “अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र है जिस रूप में उसका कथन किया जाता है, तब वह | निमित्तत्वेन कर्तारौ" तथा जयसेनाचार्य ने "इति अज्ञानमय व्यवहार होता है। परम्परया निमित्तरूपेण घटादिविषये जीवस्य कर्तृत्वं इस प्रकार असद्भूत व्यवहारनय में व्यवहार को | पर को | स्यात्" इन वाक्यों से स्पष्ट किया है। ही परमार्थ समझने की भूल नहीं की जाती, अपितु परमार्थ नियमसार (गा.१८) में वे केवली और श्रुतकेवली को परमार्थ और व्यवहार को व्यवहार ही समझा जाता | के उपदेश के अनुसार जीव का स्वरूप निश्चय और है। आचार्य अमृतचन्द्र ने व्यवहार को ही परमार्थ समझ | व्यवहारनय से इस प्रकार वर्णित करते हैं लेनेवालों को व्यवहारविमूढदृष्टि कहा है और उन्हें ही | कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो। - शुद्धात्मस्वरूप के बोध में असमर्थ बतलाया है- | कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो॥ व्यवहार विमूढदृष्टयः परमार्थं कलयनित नो जनाः।। अर्थात् व्यवहारनय से जीव पुद्गलकर्मों का कर्तातुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम्।। भोक्ता है और निश्चयनय से कर्मजनित मोहरागादि भावों समयसागर-कलश २४२ / का। "ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्ध्या चेतयन्ते ते | यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द ने जीव को जो पुद्गलकर्मों समयसारमेव न चेतयन्ते। य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया | का कर्ता-भोक्ता बतलाया है, वह असद्भूतव्यवहारनय चेतयन्ते त एव समयसारं चेतयन्ते।" है। यह उन्होंने केवली और श्रुतकेवली के उपदेश के आ.ख्या./समयसार/गा.४१४। | आधार पर बतलाया है, जैसा कि ग्रन्थ के मंगलाचरण अतः व्यवहार को ही परमार्थ मान लेना अज्ञानियों से स्पष्ट है। क्या यह उनका एवं केवली-श्रुतकेवली का अनादिरूढ़ व्यवहार है, असद्भूत व्यवहारनय उससे का अज्ञानमय अनादिरूढ़ व्यवहार है या निमित्तनैमित्तिकसर्वथा विपरीत है। तात्पर्य यह कि निश्चयनिरपेक्ष उपचार | भाव की अपेक्षा किया गया ज्ञानमय व्यवहार? केवली, अज्ञानियों का व्यवहार है, और निश्चयसापेक्ष उपचार | | श्रुतकेवली एवं कुन्दकुन्द जैसे आचार्य के विषय में तो असद्भूत-व्यवहारनय है। अज्ञानमय व्यवहार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। __आचार्य कुन्दकुन्द ने भी असद्भूतव्यवहारनय का अतः स्पष्ट है कि यह श्रुतज्ञान का अवयवभूत असद्भूत यही स्वरूप माना है। यह इस बात से सिद्ध है कि व्यवहारनय है। उन्होंने स्वयं असद्भूतव्यवहारनय से वस्तु का निरूपण समयसार में आचार्यश्री स्वयं ‘जीव रागी, द्वेषी, किया है और उसे सर्वज्ञ का उपदेश बतलाया है। यदि | मोही तथा शरीर से अभिन्न है' इस उपदेश को जिनवर वे असद्भूतव्यवहारनय को अज्ञानियों का अनादिरूढ़ | का उपदेश बतलाते हैव्यवहार मानते, तो उसके द्वारा वस्तु का निरूपण न ववहारस्य दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं। करते, क्योंकि अज्ञानपूर्ण मान्यताओं के उपदेश से शिष्य | जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा॥४६॥ दिसम्बर 2008 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524334
Book TitleJinabhashita 2008 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy