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उत्कृष्ट पूजा की थी, अर्थात् ज्ञानकल्याणक मनाया था। उस समय मन्द सुगन्धित पवन बह रही थी, आकाश में दुंदुभि बाजे बज रहे थे, तथा पुष्पवृष्टि भी हो रही थी। भगवान् बाहुबलि के ऊपर रत्नों का छत्र शोभित होता था। दिव्य सिंहासन, दुलते हुए चामर, गन्धकुटी आदि भी बनी थी । ( ॥ २०० ॥ पृ. १३०६) तथा बारह सभा बनी थी। बाहुबलि नाटक (४८, आ. ज्ञानमती जी ) जो चरमशरीरियों में सबसे मुख्य थे, ऐसे भगवान् सर्वज्ञ बाहुबलि तुम लोगों की रक्षा करें ॥ २०४ ॥ (पं. लालाराम जी शास्त्री -
अनुवाद)
विचार भी करना चाहिए कि केवलज्ञान होने पर सामान्य केवली को यदि अरहन्त नहीं कहा जाय, तो क्या कहा जायगा ? पंच परमेष्ठी में से एक परमेष्ठी, तो वे हैं ही। सभी कर्मों के क्षय के अभाव में उन्हें सिद्ध, तो नहीं कह सकते, तथैव गन्धकुटी में बैठे हुए भी जीव को आचार्य भी नहीं कह सकते। क्योंकि आचार्य का गन्धकुटी में बैठना नहीं सुना । उपाध्याय का सम्बन्ध श्रुतज्ञान के वैशेष्य से है। जब कि सामान्य केवली | श्रुतज्ञानातीत ( श्रुतज्ञानरहित) होते हैं । एवमेव २८ मूलगुणों के विकल्प के अभाव में सामान्य साधुत्व को भी जो अतिक्रान्त कर गये हैं, तथा जो परमेष्ठी भी नियम से हैं ( आदि पु. ३६ । २०२ एवं प. पु. १२२ / ७२ ) ऐसे वे पारिशेष न्याय से अरहन्त परमेष्ठी ही ठहरते हैं । सिद्ध होते हैं।
विशेष विस्तार नहीं किया जाता है। आगमानुयायियों के लिए आगम ही प्रमाण है और उससे प्रत्येक केवलज्ञानी
अर्हतत्व सिद्ध हो जाता है, अतः महान् ज्ञानी स्वर्गीय पूज्य वर्णी जी ने भूल या त्रुटि नहीं की थी। उन्होंने प्रत्येक केवली को अरहन्त कहकर आगम का हार्द ही व्यक्त किया है।
अरहंत व केवली के गुणस्थान
शंका- अर्हन्त केवली, सिद्ध केवली, तीर्थकर केवली, सातिशय केवली, उपसर्ग केवली, अन्तः कृत् केवली आदि भेद अर्हन्तों के हैं या केवलियों के?
समाधान- जब परमात्मप्रकाश की टीका में ब्रह्मदेव लिखा है कि 'अर्हत्पदमिति केवलोत्पत्तिरिति एकोऽर्थः ', तब इस शंका के उत्पन्न होने की गुंजाइश नहीं I केवलोत्पत्ति का अर्थ ही अर्हन्त अवस्था । केवलियों के तीन भेद (गुणस्थानों की अपेक्षा) हैं (१) सयोग
18 सितम्बर 2008 जिनभाषित
केवली, (२) अयोग केवली तथा (३) गुणस्थानातीत केवली ।
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अब जो-जो केवली सयोग या अयोग केवली नामक गुणस्थानों में आते, गर्भित होते हैं, वे वे केवली अरहन्त केवली हैं या अरहन्त हैं । तथा जो गुणस्थानों को पार कर चुके हैं, ऐसे केवली 'सिद्ध' हैं। तीर्थंकर केवली, उपसर्ग केवली, अन्तःकृत केवली, मूककेवली आदि तो तेरहवें चौदहवें गुणस्थानों में स्थित होते हुए अरहन्त केवली हैं, तथा सिद्ध केवली अनरहन्त केवली (अरहन्त केवली नहीं ) हैं ।
अतः पूज्य वर्णी जी ने कोश में ठीक ही लिखा गलत नहीं देखो (कोश १/१४१) । 'अरहन्त' व केवली में भेदाभेद
है,
शंका- तो फिर अरहन्त व केवली में कथंचित् भेद नहीं है?
समाधान- अरहन्त व केवली में कथंचित् तो भेद है ही । दोनों शब्द भिन्न-भिन्न हैं, अतः वाचक भिन्नत्व की अपेक्षा भेद है । दूसरा, अरहन्त सिद्ध नहीं होते, परन्तु केवली तो सिद्ध भी, यानी सिद्ध केवली भी होते हैं, अतः इस दृष्टि से भी भेद है। तीसरे, व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ की दृष्टि से भी भेद है । यथा अरि के हनन करने से या अतिशय पूज्य होने से अथवा अजन्मा होने से अरिहन्त या अरहन्त या अरुहन्त कहलाते हैं। जबकि 'केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्ठतीति केवलः ।' (मो.पा. टीका / ६) अर्थात् जो निजात्मा में एकीभाव से केवते हैं, सेवतें हैं या ठहरते हैं, वे केवली कहलाते हैं ।
इस प्रकार वाचक भेद, गुणस्थान भेद ( कथंचित्) तथा व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भेद से कथंचित् भिन्नता कही गई है।
कथंचित् अभेद भी है (१) दोनों का कथंचित् एक ही अर्थ है । (प.प्र. २/ १९५) । दोनों शब्दों से केवलज्ञानी महात्मा ही द्योतित होते हैं । (२) दोनों ही असंसारी हैं । (३) दोनों में अनुजीवी गुणों का पूर्ण विकास है । इत्यादि साम्य होने से केवली ( गुणस्थानस्थ) भी अरहन्त हैं तथा अरहन्त भी नियम से केवली हैं। इस प्रकार ' अरहन्त' व 'केवली' में कथंचित् भेदाभेद है।
जिनागम का पक्ष हठ से रहित होकर स्वाध्याय करनेवाले पुरुष के कहीं भी कुछ भी विरोध भासित
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