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________________ । केवली सब के सब अरहन्त हैं, यह निर्विवाद 1 अर्हत्पद का अर्थ केवलोत्पत्ति रहे हैं, अपने शरीर प्रमाण होने पर भी, जिन्होंने अपने ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त कर लिया है, अपने (ज्ञान) में ही सम्पूर्ण प्रमेय रहने से प्रतिभासित होने से, जो विश्वरूपता को प्राप्त हो गये हैं, सम्पूर्ण आमय अर्थात् रोगों से दूर होने के कारण जो निरामय हैं, सम्पूर्ण पापरूपी अञ्जन के समूह के नष्ट हो जाने से, जो निरंजन हैं और दोषों की कलाएँ अर्थात् सम्पूर्ण दोषों से रहित होने के कारण जो निष्कल हैं, ऐसे अरिहन्त होते हैं, उन्हें नमस्कार हो । शंका- आपके कथनानुसार तो 'केवली बनना यानी केवलज्ञान की उत्पत्ति होना', बस इसका अर्थ ही अरहन्तपद पाना, ऐसा है? यह कहाँ लिखा प्रमाण बिना कैसे माना जाय ? आगम समाधान- हाँ, ठीक है । केवलोत्पत्ति का अर्थ ही अरहन्तपद की प्राप्ति है। अरहन्तपद कहो या भावमोक्ष कहो, अथवा जीवनमोक्ष कहो या केवलज्ञान की उत्पत्ति ७. पं. रतनचन्द्र मुख्तार ने ' व्यक्तित्व एवं कृतित्व' कहो, ये चारों एक अर्थ को ही सूचित करते हैं। में लिखा हैपरमपूज्य आध्यात्मिक ग्रन्थ परमात्मप्रकाश में कहा भी है अ 'अनन्तचतुष्टयस्वरूप अरहन्त हैं । ' (गुण० प्रकरण) ब- देशभूषण व कुलभूषण (सामान्य केवली होते हुए भी) अरहन्त हुए । (जैन संदेश दि. ३.१.५८ पृष्ठ VI पर ब्र. स्व. मुख्तार सा. का लेख ) इस प्रकार उक्त विविध ग्रन्थों की परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि तेरहवें गुणस्थानवाले सभी जीव अरहन्त होते हैं। क्योंकि उक्त सातों परिभाषा, स्वरूपाख्यानों में कथित योग्यताएँ प्रत्येक सयोग या अयोग केवली के पाई जाती हैं । उक्त परिभाषा अन्तःस्वरूप की प्रधानता को लिए हुए है । अतः जब अन्तः स्वरूप की अपेक्षा देखते हैं, तो एक अरहन्त का दूसरे अरहन्त से किंचित् मात्र भी अन्तर नहीं है। पर हाँ, जब बहिरंग स्वरूप पर दृष्टिपात करते हैं, तो ४६ गुणवाले यानी पंचकल्याणकी तीर्थङ्कर ही मुख्यता से अरहन्त है ? तथा अन्य ४६ से हीन गुणवाले केवली अमुख्यता (गौणता) से अरहन्त हैं । कहा भी है- 'इहाँ अरहंतादि पद विषै मुख्यपणे तीर्थङ्कर का अर गौणपणे समस्त केवलीनिका ग्रहण है ।' (मो. मा. प्र., आचार्यकल्प पं. टोडरमल जी पृष्ठ ६, धर्मपुरा देहली से प्रका. ) । नोट- यहाँ बहिरंग स्वरूप से अभिप्राय कहीं ऐसा हैं, न लिया जाय कि ४६ ही गुण बहिरंग से सम्बद्ध हैं, परन्तु इसका अभिप्राय यह है कि ४६ गुणों में से, जो अन्तरंग गुण हैं, वे तो प्रत्येक केवली अर्थात् अरहंत में पाये ही जायेंगे, समान रूप से। तथा जो बहिरंग ( यथा जन्म के दस अतिशय आदि) हैं उनमें हीनाधिकता पड़ती है । अर्हत्पदमिति, भावमोक्ष इति, जीवन्मोक्ष इति केवलज्ञानोत्पत्तिरिति एकोऽर्थः । पं. दौलतरामजी का हिन्दी अर्थ - " अरहन्तपद कहो या भावमोक्ष कहो, अथवा जीवोन्मोक्ष कहो, या केवलज्ञान की उत्पत्ति कहो- ये चारों एक ही अर्थ को सूचित करते हैं। अर्थात् चारों शब्दों का एक ही अर्थ है ।" Jain Education International (पृ. २९९, प. प्र. दोहा. १९५ का उत्थानिका अधिकार) आगे पृ. ३०० पर कहते हैं- "केवलज्ञानी का अर्हन्त है । " ( पं. दौलतराम जी) आगे पृ. ३०० पर पुन: कहते हैं- “समस्त लोकालोक को एक ही समय में केवलज्ञान से जानता हुआ जीव अरहन्त कहलाता है।" ( भावार्थ एवं मूल दोहा २ / १९६ पृ. ३००) इस प्रकार सिद्ध हुआ कि सभी केवली नियमतः अरहन्त होते हैं, इसमें क्या शंका ? सशरीर बाहुबली (आदि) में आर्हन्त्यसिद्धि शंका- क्या बाहुबली भी अरहन्त कहे जा सकते जब उन्हें केवलज्ञान हुआ था ? समाधान- महापुराण (आदिपुराण) पर्व ३६ दोहा १९९ से २०४ पृ. १३०६-७ पर लिखा है- "घातिया कर्मों का क्षय होने से, जिन्हें अरहन्त परमेष्ठी का पद प्राप्त हुआ है और इसीलिए जिनकी सब देव आराधना करते हैं, ऐसे उन बाहुबली भगवान् ने समस्त पृथ्वी पर विहार किया था ॥ २०२ ॥ बाहुबलि की केवलज्ञान इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि सयोग व अयोग | उत्पत्ति सुनते ही इन्द्रादि सभी देवों ने आकर उनकी सितम्बर 2008 जिनभाषित 17 नाम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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