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________________ है। तथा केवलज्ञानादि सम्पूर्ण आत्मगुणों के आविर्भाव । ५. णिद्दद्ध-तोह-तरुणो वित्थिणाणसायरुतिण्णा। के रोकने में समर्थ कारण होने से भी मोह प्रधान शत्र णिहय-णिय विग्ध वग्गा बहु-बाह-विणिग्गया अयला॥ है और "उस शत्र (मोहनीय) के नाश करने से 'अरिहन्त' दलियमयणप्पयावा तिकाल-विसएहि तीहि णयणेहि। यह संज्ञा प्राप्त होती है।" दिट्ठ-सयलट्ठ-सारा सुदद्व-तिउरा मुणि-व्वइणो॥ ३. रजोहननाद्वा अरिहन्ता। ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव ति-रयण-तिसूलदारियमोहंघासुर-कबंध-बिंद-हरा। बहिरङ्गान्तरङ्गाशेषत्रिकाल-गोचरानन्तार्थव्यञ्जन-परि- | सिद्ध सयलप्परूवा अरहंता दुण्णय कयंता॥ णामात्मक-वस्तुविषयबोधानुभवप्रतिबन्धकत्वाद्रजांसि। (भगवद् वीरसेन स्वामी) मोहोऽपि रजः, भस्मरजसा पूरिताननामिव भूयो मोहा- | अर्थ- अरहन्त का स्वरूप- जिन्होंने मोहरूपी वृक्ष वरुद्धात्मनां जिह्मभावोपलम्भात् किमिति त्रितयस्यैव | को जला दिया है, जो विस्तीर्ण अज्ञानरूपी समुद्र से उत्तीर्ण विनाशः उपदिश्यत इति चेन्न, एतद्विनाशस्य शेषकर्म- | हो गये हैं, जिन्होंने अपने विघ्नों के समूह को नष्ट कर विनाशाविनाभावित्वात्। तेषां हननादरिहन्ता। | दिया है, जो अनेक प्रकार की बाधाओं से रहित हैं, अर्थ- रज अर्थात आवरण-कर्मों के विनाश से | अचल हैं, जिन्होंने तीनों कालों को विषय करने रूप 'अरिहन्त' होते हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मधूलि | तीन नेत्रों से कामदेव के प्रताप को दलित कर दिया की तरह बाह्य और अन्तरंगस्वरूप समस्त त्रिकाल गोचर | है, जिन्होंने सकल पदार्थों के सार को देख लिया है, अनन्त अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायस्वरूप वस्तुओं को | जिन्होंने त्रिपर अर्थात राग-द्वेष-मोह को अच्छी तरह से विषय करनेवाले बोध और अनुभव के प्रतिबंधक होने | भस्म कर दिया है, जो मुनिव्रती अर्थात् दिगम्बर अथवा से रज कहलाते हैं। मोह को भी रज कहते हैं। क्योंकि । मनियों के पति अर्थात ईश्वर हैं, जिन्होंने सम्यग्दर्शन, जिस प्रकार जिनका मुख भस्म से व्याप्त होता है, उनमें | सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इन तीन रत्नरूपी त्रिशल जिह्मभाव अर्थात् कार्य की मन्दता देखी जाती है, उसी | के द्वारा मोहरूपी अन्धकाररूप असुर के कबन्ध जड़, प्रकार मोह से जिनका आत्म-व्याप्त हो रहा है, उनके | को विदारित कर लिया है, जिन्होंने सम्पूर्ण आत्मस्वरूप भी जिह्मभाव देखा जाता है, अर्थात् उनकी स्वानुभूति | को प्राप्त कर लिया है और जिन्होंने दुर्नय (स्वकीय में कालुष्य, मन्दता या कुटिलता पाई जाती है। | एकान्ताभिनिवेश) का अन्त कर दिया है, ऐसे अरिहन्त शंका- यहाँ पर तीनों, अर्थात् मोहनीय, ज्ञानावरण | परमेष्ठी होते हैं। और दर्शनावरण कर्म के ही विनाश का उपदेश क्यों | ६. आगम में अरहन्तों का लक्षण इस प्रकार भी दिया है? मिलता हैसमाधान- ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि शेष । आविर्भूतानन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यविरतिक्षायिकसम्यसभी कर्मों का विनाश इन तीन कर्मों के विनाश का | क्त्वदानलाभभोपोपभोगाद्यनन्तगुणत्वादिहैवात्मसात्कृतअविनाभावी है। सारतः इन तीन कर्मों के नष्ट हो जाने | | सिद्धस्व-रूपाः स्फटिकमणिमहीधरगर्भोद्भूतादित्यबिम्बपर शेष कर्मों का नाश अवश्यम्भावी है। 'इस प्रकार | | वद्देदीप्य-मानाः स्वशरीरप्रमाणऽपि ज्ञानेन व्याप्तविश्वरूपाः तीन कर्मों के विनाश से अरिहन्त होते (बनते) हैं।' | स्वस्थिता-शेषप्रमेयत्वतः प्राप्तविश्वरूपाः निर्गताशेषाम४. रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता। रहस्यमन्तरायः, तस्य यत्वतो निरामयाः विगताशेषपापाञ्जनपुञ्जत्वेन निरञ्जना: शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टबीजवन्निः शक्ति- | दोषकलातीतत्वतो निष्कलाः, तेभ्योऽर्हद्भ्यो नमः। (धवला कृताधातिकर्मणो हननादरिहन्ता। सत्प्ररूपणा) अर्थ- अथवा, रहस्य के अभाव से भी अरिहन्त अर्थ- अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, होते हैं। रहस्य अन्तरायकर्म को कहते हैं। अन्तराय कर्म अनन्तवीर्य, अनन्तविरति, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक दान, का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावी | क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग आदि प्रकट है. और अन्तराय कर्म का नाश होने पर अघाति कर्म | हुए अनन्त गुणस्वरूप होने से, जिन्होंने यहीं पर सिद्धभ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं, ऐसे अन्तराय | स्वरूप प्राप्त कर लिया है, स्फटिकमणि के पर्वत के कर्म के नाश करने से अरिहन्त होते हैं। | मध्य से निकलते हुए सूर्य के बिम्ब के समान जो देदीप्यमान 16 सितम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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