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________________ नहीं होता। से परमेष्ठी नहीं हैं। वे अरहन्त ही हैं। अत: सन्दर्भ जवाहरलाल जी शास्त्री का उक्त सब कथन आगमानुकूल १. 'छियालीस गुण तीर्थंकर अरहन्त में ही घटित होते ही है।' (डॉ. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य)। हैं, अन्य केवलियों में नहीं, पर वे, अरहन्त सो | २. पं. जवाहरलाल जी का उक्त लेख आगमानुकूल ही हैं ही। पंच परमेष्ठियों में 'केवली' कोई अलग । है। (पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य)। समीक्षा शताब्दीवर्ष (1905-2005) स्मारिका प्राचार्य अभयकुमार जैन, श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनी, वाराणसी-10, सम्पादक- डॉ. प्रो. श्री फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी' अध्यक्ष-जैनधर्म-दर्शन वि. सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणासी, प्रकाशन वर्ष- शताब्दी वर्ष, वीर निर्वाण संवत् २५३२ सन् २००६ ईस्वी, प्रकाशक- श्री स्याद्वाद महाविद्यालय भदैनी, वाराणसी -१०, मूल्य ५० रुपये, पृष्ठ संख्या - ४४+२००। डॉ० श्री ‘प्रेमी' जी के कुशल सम्पादकत्व में । के नवम अधिवेशन की जानकारी वस्तुतः एक दुर्लभ प्रकाशित यह स्मारिका इस महाविद्यालय का एक | दस्तावेज है। राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य आन्दोलनों में यहाँ छात्रों ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसमें इस विद्यालय की स्थापना | द्वारा दिये गये सक्रिय योगदान- विषयक आलेख देशभक्ति से लेकर उत्तरोत्तर विकास का व्यौरा है। विद्यालय के | की प्रेरणा देते हैं। इस विद्यालय एवं अध्यापकों के प्रति संस्थापक पूज्य श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी एवं विद्यालय | पूर्व स्नातकों के कृतज्ञता-द्योतक संस्मरण भी हृदयग्राही के प्राणभूत सिद्धान्ताचार्य पं. श्री कैलाशचन्द्र जी शास्त्री | एवं प्रेरक हैं। स्मारिका सर्वांग सुन्दर है। के विद्यालय के प्रति पूर्ण समर्पण अपूर्वत्याग एवं निष्ठा | जैनधर्म- (एक झलक)- लेखक- डॉ.श्री अनेकान्त की परिचायक यह स्मारिका इस विद्यामंदिर की स्थापना | जैन (जैनदर्शन विभाग) श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय एवं विकास में सहयोगी अन्य महानुभावों की भी जानकारी | संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली, संस्करण-चतुर्थ सन् २००८ देती है। यह स्थापना इस समय के एवं बाद के अनेक | पृष्ठ संख्या- १२+५६-६८, मूल्य-१० रूपये। (पुनः महत्त्वपूर्ण प्रेरक प्रसङ्गों एंव संस्मरणों को भी अपने में | प्रकाशन हेतु) सजोये हुए है। साधु-साध्वियों, भट्टारकों, धीमानों, श्रेष्ठियों | सरल प्रवाहयुक्त शैली और सरल सुबोध भाषा जनेताओं की मंगलकामनाओं के साथ-साथ इस | में लिखित यह लघकति अपने में बहत सारे विषयों विद्यालय में अध्ययन हेतु प्रविष्ट हुए सहस्राधिक छात्रों को संजोये हुए है। यह जैनधर्म की प्राचीनता, मौलिकता की विस्तृत सूची स्मारिका के अन्त में दी गई है। | और उसके वैशिष्टय को दर्शाते हुए जैनधर्म और उसके विद्यालय-परिवार के अतीत के अनेक दुर्लभ चित्र भी | प्रमुख सिद्धान्तों तथा पर्यों का बोध कराती है। जैनसम्प्रदाय इसमें यथास्थान दिये गये हैं, जो पूर्व अध्यापकों, | जैनागम साहित्य एवं जैनदर्शनानुसार विश्वव्यवस्था पर अधिकारियों एवं छात्रों की स्मृति दिलाते हैं। कवर पृष्ठों भी प्रकाश डालती है। जैनधर्म एवं दर्शन विषयक अनेक पर विद्यालय के भवन, छात्रावास, प्रभुघाट एवं भगवान् | भ्रान्तियों को दूर करती है। जैनधर्म एवं जैनत्व की प्रारम्भिक श्री सुपार्श्वनाथ जिनालय के भव्य चित्र मन को मोहते प्रामाणिक जानकारी के लिए यह लघुकृति अत्यन्त उपयोगी हैं। इनके सिवाय अन्य अनेक पठनीय बोधप्रद आलेख | है। अतः जैनधर्म एवं दर्शन के जिज्ञासु जैन एवं जैनेतर भी इसमें समाविष्ट हैं। श्री मनु भट्टाचार्य द्वारा संस्कृत | पाठकों के लिए यह पठनीय मननीय है। युवा लेखक के १०५ पद्यों में रचित काशी-महिमा, विद्यालय की स्थापना डॉ० अनेकान्त का यह श्रम श्लाघनीय है। सर्वजनोपयोगी एवं प्रगति का चित्रण विशेष उल्लेखनीय एवं सराहनीय | इस कृति के प्रकाशन के लिए लेखक एवं प्रकाशनहै। डॉ. श्रीमती मुन्नीपुष्पा जैन द्वारा संकलित स्याद्वाद | संस्था भूरि-भूरि प्रशंसा के पात्र हैं। बीना सितम्बर 2008 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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